फिर भी कुछ लोग : अत्याधुनिक कविताएँ

पुस्तक समीक्षा

Webdunia
ओम निश्चल
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व्योमेश शुल्क की काव्य पुस्तिका होना 'अब ज्यादा होगा' ने एक संभावना जगाई थी - कविता के कुछ अटपटे फॉर्मेट और अंतर्वस्तु के नवविन्यास के हामी व्योमेश की कुछ कविताओं से यह बात जाहिर भी होती है। हाल ही में प्रकाशित 'फिर भी कुछ लोग' उनका पहला कविता संग्रह है जो इस बात की बिना परवाह के सामने लाया गया है कि इसे आसानी से लोग खारिज भी कर सकते हैं।

जैसे कि व्योमेश की कविताओं से प्रकट है, वे अपने समकालीनों की तरह सुपाच्य और आस्वाद्य कविता नहीं लिखना चाहते। व्योमेश अपनी परंपरा से पृथक रचना चाहते हैं। वे परंपरा में व्याप्त औसत सौंदर्याभिधायी कविता के प्रति दिलचस्पी रखने वाले पाठक या रसज्ञ को आस्वाद के स्तर पर झटका देना चाहते हैं और चाहते हैं कि यह रसज्ञ वर्ग, बेशक अल्पसंख्यक सही, इस नई प्रजाति की कविता की ओर मुड़े।

दूसरे अर्थों में वे कविता के बाजारवाद के वशीभूत न होकर उसकी अभिव्यक्ति को अपनी तरह से नव्य और श्रव्य बनाने की जिद पर अड़े दिखते हैं। यह जानते हुए भी कि विनोद कुमार शुक्ल हों या देवीप्रसाद मिश्र, नए काव्य प्रयोगों की दृष्टि से उन्हें कितना कम समझा गया है, व्योमेश इस जोखिम से निपटने का बीड़ा उठाते हुए आगे बढ़ रहे हैं तो उनके जेहन में स्पेनी लेखक ख्वान रामोन खिमेनेस हैं जिनके लिए पाठक अल्पसंख्यक होते हुए भी अपार और अपरिमेय हैं।

कविता की इस जोखिमपूर्ण सोपान पर बढ़ने वाले व्योमेश के यहाँ कविता की अंतर्वस्तु में किस हद तक नयापन है, यह जानना दिलचस्प होगा। फिर भी कुछ लोग' में अनेक ऐसी कविताएँ हैं, मसलन - 'बूथ पर लड़ना', 'राजदूत', 'सरलीकरण' 'चुप भी', और 'वजह', जिनमें कविता का नयापन दिखता है पर उसके अंतर्वस्तु का केंद्रीय असर तनिक क्षीणप्राय हो जाता है।

जिस कविता के लिए व्योमेश के कविता-करतब को याद किया जाना चाहिए, वह है 'बूथ पर लड़ना'। सांप्रदायिक व तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अगुवा संघी जमात कैसे अल्पसंख्यकों के नाम पर वोट डलवा देती है, नाश्ते-पानी से लुभाकर कैसे एक पूरे समूह को अगवा कर लेती है, इस पूरे कारनामे का विश्लेषण करती है यह कविता।

' अनेक फिल्में बनाती हैं' एक डिब्बाबंद फिल्म को लेकर, उसके कथ्य और बाजारभाव के अंतर्द्वंद्व को बखूबी विश्लेषित किया गया है। सिनेमाई बाजारवाद के बीच तमाम तकनीकी खामियों के साथ बनी एक फिल्म के बहाने व्योमेश उन तमाम अलक्षित दृश्यों को न देख पाने की तह में जाते हैं तथा उसके कथ्य को विस्तार देने के लिए और फिल्में बनाने की जरूरत पर बल देते हैं। इसी भावभूमि पर 'नदियों की तरह' कविता को याद किया जा सकता है जहाँ देवकी नंदन खत्री की हिंदी की विरासत के क्षरण की कथा व्योमेश ने उनसे एक जीवंत संवाद के जरिए कही है।

ये कविताएँ इस अर्थ में नई हैं, प्रयोगमूलक हैं, विचलनकारी हैं कि इनके प्रस्तुतीकरण का ढंग अलग है। अपने उद्दिष्ट उपयोग के लिए इनमें कतई कोई बेचैनी नहीं है। इनका माडयूल अलग है। विनोदकुमार शुक्ल के यहाँ अव्ययों, सर्वनामों, विशेषणों, योजकों के साथ वाक्यों और भंगिमाओं की नई बानगी मिलती है - श्लेष, रूपक, उत्प्रेक्षा और यमक आदि अलंकारों के दुर्लभ संयोग पाए जाते हैं तो देवीप्रसाद मिश्र की इधर की कविताओं में तमाम आवाजों का समूहन समय के एक बड़े परिदृश्य को कविता में संभव करता है।

गद्य-पद्य और चम्पू यानी कविता कला के समस्त उपकरणों का सहारा लेते हुए देवीप्रसाद उन सारी संभावनाओं को जैसे निचोड़-सा लेते हैं जो भी कविता के बनने-रचने में सहायक हैं। व्योमेश का नैरेशन विष्णु खरे की काव्ययुक्तियों का अनुगमन भी करता है किंतु खरे जिस तरह नैरेशन को काव्यात्मक बना लेने में सिद्धहस्त हैं और अंतर्वस्तु को साध सकने में कुशल हैं, व्योमेश अंतर्वस्तु को साधने पर ज्यादा मेहनत न कर अंदाजेबयाँ की साधना पर बल देते हैं।

यह सच है कि व्योमेश सिनेमाई तरकीबों का सहारा लेते हैं, बचपन और स्मृतियों के धागे से कुछ नया बुनते रचते हैं और वर्तमान में अधिकांश के प्रति अपने असंतोष को पूरी जिरह और तार्किकता के साथ बचाए रखते हैं पर अनगढ़ता और असंप्रेषणीयता उनकी कविताओं की खूबी है, यह कविता के सुगठित संसार का प्रतिकार और बहिष्कार है। यह और बात है कि फिर भी उनके यहाँ अनेक ऐसी कविताएँ संभव हुई हैं जो उनके कवि होने का मुकम्मल सबूत पेश करती हैं। मसलन, 'कितना ही बदलिए' में कविता अपने होने का ऐलान करती है।

पुस्तक : फिर भी कुछ लोग
कवि : व्योमेश शुक्ल
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 150 रुपए

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