बारूद डालना भूल गए आडवाणी !

Webdunia
- सुरेश बाफन ा
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आजादी के बाद के भारतीय राजनीतिक इतिहास में गिने-चुने नेता ही हैं, जिन्होंने अपने निजी व सार्वजनिक जीवन को लिपिबद्ध करने की जरूरत महसूस की है। आमतौर पर राजनेता सार्वजनिक जीवन से अलग होने के बाद अपने अनुभवों को पुस्तक की शक्ल देने की कोशिश करते हैं, लेकिन भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने सार्वजनिक जीवन में घनघोर रूप से सक्रिय रहते हुए ही अपनी आत्मकथा को प्रकाशित करवाया है।

942 पृष्ठों की इस आत्मकथा के बारे में कई वरिष्ठ पत्रकारों ने टिप्पणी की है कि यह पुस्तक लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर लिखी गई है। इसमें कोई शक नहीं है कि यह टिप्पणी आंशिक रूप से सत्य है, लेकिन इससे इस आत्मकथा का महत्व कम नहीं हो जाता है। भारतीय राजनीति में लालकृष्ण आडवाणी की विशेषता यह है कि उनके कट्टर राजनीतिक दुश्मन भी उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं।

आज भारतीय जनता पार्टी जिस तरह देश की राजनीति में कांग्रेस के बाद दूसरे महत्वपूर्ण पोल के रूप में उभरी है, उसका 80 प्रतिशत श्रेय आडवाणीजी के खाते में जाता है। 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए इंदिरा हटाओ आंदोलन के बाद देश की राजनीति एक रोलर-कोस्टर के दौर से गुजरी है।

आपातकाल, जनसंघ का जनता पार्टी में विलय, केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दोहरी सदस्यता के सवाल पर मोरारजी सरकार का असामयिक पतन, भाजपा का गठन, इंदिराजी की हत्या के बाद राजीव गाँधी का प्रधानमंत्री बनना, फिर बोफोर्स के घोड़े पर सवार वीपी सिंह का भाजपा के समर्थन से प्रधानमंत्री बनना, अयोध्या में मंदिर के मुद्दे पर भाजपा की राजनीतिक सफलता जैसी घटनाओं के बीच आडवाणी एक बड़े खिलाड़ी के रूप में सामने आए हैं।

जो लोग इस आत्मकथा के प्रकाशित होने के बाद राजनीतिक धमाके की उम्मीद कर रहे थे, उनको जरूर निराशा हुई होगी। ब्रजेश मिश्रा के दो पदों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के साथ शाकाहारी मतभेद के अलावा इस जीवनी में ऐसा कोई विवादास्पद प्रसंग नहीं है, जो चुनावी दृष्टि से भाजपा के लिए नुकसानदेह हो। विपक्ष के प्रमुख नेता होने के नाते कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधने में उन्होंने काफी उदारता दिखाई है, वहीं संघ व भाजपा से जुड़े विवादास्पद मुद्दों पर उनकी खामोशी काफी मुखर है।

पाकिस्तान में जिन्ना संबंधी बयान के बाद भाजपा के भीतर वैचारिक विस्फोट की स्थिति पैदा हो गई थी। पुस्तक में आडवाणीजी ने स्वयं स्वीकार किया कि पार्टी के कई वरिष्ठ सहयोगी उनकी टिप्पणी से नाराज थे। इस वैचारिक तूफान का अंत पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे के रूप में हुआ।

पुस्तक में आडवाणीजी ने इस वैचारिक तूफान का जिक्र खुलकर किया और अपने बयान से पीछे नहीं हटे। इतना ही नहीं उन्होंने यह कहने का साहस भी दिखाया कि सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा के साथ उनकी पाकिस्तान यात्रा ने भारतीय राजनीति के इतिहास को नई दिशा दी है।

पत्रकार के नाते मैं उस दिन अयोध्या में मौजूद था और मैंने अपनी आँखों से जो देखा वह एक सुनियोजित साजिश के अलावा कुछ नहीं था। यदि पुलिस ने आँसू गैस के गोले दाग दिए होते तो आडवाणीजी को यह दुखद दिन देखना नहीं पड़ता। पुलिस व प्रशासन ने अपनी संवैधानिक व कानूनी जिम्मेदारी नहीं निभाई।

6 दिसंबर की घटना के बारे में आडवाणीजी ने पुस्तक में जो ब्योरा दिया है, वह वहाँ मौजूद पत्रकारों द्वारा दिए गए विवरण से मेल नहीं खाता है। अयोध्या विवाद के संदर्भ में आडवाणीजी ने कई ऐसी अंतरंग तथ्यात्मक जानकारियाँ दी हैं,जो अभी तक अज्ञात थीं। यह स्वीकार करना होगा कि उन्होंने अयोध्या पर भाजपा के पक्ष को तार्किक ढंग से पेश किया है।

आत्मकथा लिखने वाले लेखक से यह उम्मीद करना वाजिब है कि वह विवाद से जुड़े उन बिंदुओं को भी स्पर्श करेगा, जो अप्रियकर हैं। यह सर्वविदित है कि अयोध्या के सवाल पर अटलबिहारी वाजपेयी की राय अलग थी। आडवाणीजी ने अपनी पुस्तक में इस बिंदु के विस्तार में जाना हितकारी नहीं समझा। जिन्ना विवाद के संदर्भ में उन्होंने यह जरूर बताया कि उनको भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया, लेकिन यहाँ भी यह बताना जरूरी नहीं समझा कि किसने उनसे इस्तीफा माँगा था?

अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान भाजपा व संघ के बीच कई मुद्दों पर तनाव पैदा हुआ था। संघ नेताओं ने कई बार वाजपेयी सरकार को लेकर सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी प्रकट की थी। भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने संघ को यह सुझाव भी दिया था कि वे पार्टी संगठन से जुड़े छोटे-छोटे मामलों में हस्तक्षेप न करें, पर आडवाणीजी इस विषय पर भी टिप्पणी गोल कर गए।

आडवाणीजी ने पुस्तक में स्वीकार किया कि अयोध्या व नरेन्द्र मोदी के सवाल पर दोनों के बीच मतभेद थे, लेकिन वाजपेयीजी ने इन दोनों मुद्दों पर बहुमत की राय को स्वीकार किया। पुस्तक में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि वाजपेयीजी के नेतृत्व में भाजपा ने जिसगाँधीवादी समाजवाद को स्वीकार किया था, वह बाद में भाजपा के एजेंडे से क्यों व कैसे गायब हो गया?

आडवाणीजी के जीवन की महत्वपूर्ण निजी घटनाओं के साथ यह आत्मकथा जनसंघ व भाजपा की राजनीतिक जीवनी भी है। उनके बचपन व परिवार के अंतरंग प्रसंग भावनात्मक कम, वैचारिक धरातल पर अधिक प्रकट हुए हैं।

कराची में मोटरसाइकल पर सवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक आडवाणी व आज के आडवाणी में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। आज भी वे संघ की विचारधारा के प्रति उतने ही प्रतिबद्ध हैं। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने इस छवि को मिटाने की कोशिश की है कि वे कट्टरवादी हिन्दुत्व में विश्वास करते हैं या
  942 पृष्ठों की इस आत्मकथा के बारे में कई वरिष्ठ पत्रकारों ने टिप्पणी की है कि यह पुस्तक लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर लिखी गई है। इसमें कोई शक नहीं है कि यह टिप्पणी आंशिक रूप से सत्य है, लेकिन इससे इस आत्मकथा का महत्व कम नहीं हो जाता है।      
उनका हिन्दुत्व मुस्लिम विरोधी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आडवाणीजी से प्रेरित होकर हमारे समय के अन्य महत्वपूर्ण राजनेता भी आत्मकथा लिखकर इतिहासकारों का रास्ता आसान बनाएँगे।
* पुस्तक : माय कंट्री, माय लाइफ
* लेखक : लालकृष्ण आडवाणी
* प्रकाशक : रूपा एंड कंपनी
* मूल्यः 595 रु.
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