डॉ. सतीश दुबे जी की लघुकथाएँ संवदेनाओं की चरम स्थिति पर पहुँचती है जब वे अपनी एक कहानी ' अनुभव ' में दो पत्थरों को बाप-बेटे के रिश्ते में गढ़ कर उनके बीच संवाद करवाते है। कहानी कुछ यूँ है -
बस्ती से हाँफते-लुढ़कते वापस लौटकर एक ओर बैठे पत्थर से उसके पिता ने पूछा- क्या हुआ इस तरह थरथर काँप क्यों रहे हो...? पिताजी आपने इंसानों की बस्ती में जाने के लिए ठीक ही मना किया था, वहाँ के लोग तो हमारा उपयोग एक दूसरे पर फेंकने के रूप में करते हैं।
इस लघुकथा में गहरे अर्थ को उजागर करते हुए इंसानों की पत्थरों से तुलना कर जीवन में दिन ब दिन खत्म होती इंसानियत का विवरण बहुत ही मार्मिक तरीके से किया है। कहानी के सबक में हमें यह पता चलता है कि आज के समय में पत्थर भी इंसान से ज्यादा संवेदनशील है।
अपनी पुस्तक में दुबे जी ने हमारे आसपास से संवेदनाओं को उठाकर बखूबी शब्दों में ढाला है। लगभग सभी लघुकथाएँ सुंदर और पठनीय है जिन्हें पढ़कर समाज में व्याप्त कई समस्याओं की तरफ न सिर्फ हमारा ध्यान आकर्षित होता है, बल्कि इन विषयों पर ये लघुकथाएँ हमें सोचने पर भी मजबूर करती है।
'काग भगोड़े' में पुलिस के जनता के प्रति खराब रवैये को उकेरा है और लिखा कि किस तरह पुलिस अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़कर सड़क पर हो रहे अत्याचारों से बेपरवाह तमाशा देखते है। त्रस्त होकर नायक कहता है कि- मुझे पता है रिपोर्ट किसकी और कहाँ लिखाना है।
कभी किसी असंवेदनशील पुलिस वाले के चरित्र को लेखक ने अपनी कथा में ढाला और समाज के प्रति पुलिस के क्रूर रवैये को उजागर किया तो कभी ' धरमभाई ' कथा के माध्यम से एक मामूली से टेम्पो ड्राईवर को संवेदनशील बनाकर समाज के अच्छे पक्ष पर भी प्रकाश डाला।
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' काग भगोड़े' में पुलिस के जनता के प्रति खराब रवैये को उकेरा है और लिखा कि किस तरह पुलिस अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़कर सड़क पर हो रहे अत्याचारों से बेपरवाह तमाशा देखते है। त्रस्त होकर अंत मे नायक कहता है कि- मुझे पता है रिपोर्ट किसकी और कहाँ लिखाना है ?
लेखक को पढ़ने का चस्का था इसलिए संघर्षमय बचपन गुजारते हुए भी कई सारी पुस्तकें पढ़ी। जाहिर है जीवन के इसी हिस्से से संवेदनशीलता आई होगी और उसी का अनुभव उनकी कहानियों में झलकता है, दूसरी तरफ एक असाध्य रोग से जूझते हुए जब वे संवेदनाओं को कागज पर उकेरते है तो आश्चर्य ही नही एक अदभूत उर्जा का भी संचार भी होता है। हम न सिर्फ दुबे जी की लघुकथाओं से प्रेरित होते है उनकी जिंदगी भी हमें प्रेरित करती है।
दुबे जी ने अपनी लेखन शैली में टेम्पू, दसेक मिनिट, साबुन की बट्टी... जैसे शब्दों का उपयोग कर मालवी और स्थानीय ठेठपन का अहसास भी कराया है। भाषा उम्दा है। ऐसा नहीं है कि ये संकलन अपने आप ही अच्छा बन पड़ा है, ये तो लेखक डॉ. सतीश दुबे की सोच, उनके नजरिए का कमाल है कि इतना उम्दा संकलन उन्होंनें प्रस्तुत किया है। सभी लघुकथाएँ अच्छी है। भाषा प्रभावी है और दृष्टिकोण कमाल का है। आईए... चलते-चलते एक लघुकथा और पढ़ते है और उनकी सोच का अन्दाजा लगाने की कोशिश करते हैं । कहानी का शीर्षक है ' गोबर ' और इसमें लेखक की सोच कुछ यूँ है...
'' सड़क के किनारे पड़े गोबर को उठाकर उन्होंने अपने आँगन में थेपकर उपले का रूप दे दिया। सूखने के गुण से युक्त होने पर उन्होंने उसमें अदभूत ऊर्जा का अनुभव किया।
' किंचित लौं का स्पर्श पाकर देखते ही देखते पहले वह चिंगारी और बाद में आग बन गया।'