- उत्पल बैनर्ज ी पिछले पन्द्रह बीस सालों में शिक्षा-व्यवस्था का ढाँचा लगभग बदल ही गया है। ऊपरी तौर पर जो-जो परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हों लेकिन भीतर ही भीतर एक बड़ा बदलाव शिक्षा के क्षेत्र में हमें दिख रहा है। यह बदलाव आधुनिकता का बदलाव है।
इसने पूर्व प्रचलित मान्यताओं को लगभग तहस-नहस कर दिया ह ै और शिक्षा में एक नए किस्म का सौन्दर्यशास्त्र गढ़ दिया है। हमें इस तथ्य को मानने में भले ही कितनी ही तकलीफ क्यों न हो, लेकिन सच यही है कि अब शिक्षा-व्यवस्था के केंद्र में शिक्षक नहीं विद्यार्थी हैं।
हमारे यहाँ मुश्किल यह है कि हमारे शिक्षक की आज भी विद्यार्थियों से अपेक्षा वैसी ही है जैसी प्राचीन काल में गुरुओं की शिष्यों से हुआ करती थी। आज के शिक्षक उन अतिप्राचीन स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पा रहे। जबकि हम सभी जानते हैं कि आज के समय की तुलना उस युग के समय से नहीं की जा सकती। आज का समाज उस काल का समाज नहीं है। और यह भी कि आज का शिक्षक उस काल का गुरु नहीं, आज का विद्यार्थी उस काल का शिष्य नहीं।
आज की शिक्षण प्रणाली ईश्वर की आराधना का साधन- मात्र नहीं, और न ही आज के विद्यालय ईश्वर के मंदिरों-जैसे। और फिर समाज में यह शिकायत उठने लगती है कि आजकल अच्छे गुरु नहीं मिलते। मिलेंगे कहाँ से! वस्तुत: हमें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि गुरु शब्द की अवधारणा और शिक्षक शब्द की अवधारणा में जमीन-आसमान का अंतर है। शिक्षक आमतौर पर शिष्य की पाठ्यक्रम संबंधी समस्याओं को दूर करने वाला सहायक होता है, ज्ञान को हस्तांतरित करने वाला, एक तकनीशियन।
उसका विद्यार्थी अच्छे अंकों से परीक्षाओ ं में पास हो जाए, इसमें वह काफी प्रसन्नता का अनुभव करता है। उसकी अपनी कक्षाओं के बच्चों के क े उसके अपने विषय में आए अच्छे अंकों में वह अपनी तरक्की और अच्छी इमेज के ख्वाब देखता है। लेकिन अच्छे गुरु की भूमिका केवल इतने पर समाप्त नहीं हो जाती। वह केवल ज्ञान के हस्तांतरण पर नहीं ठहर जाता।
वह अपने विद्यार्थियों के संपूर्ण जीवन को रूपांतरित करने की कोशिश करता है। और एक व्यापक अर्थ में वह एक पीढ़ी के सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक मूल्यों को परिशोधित करता है, उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय की मीमांसा कर उसके नैसर्गिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। और इसके एवज में वह विद्यार्थियों से किसी भी तरह के धन-दौलत की कामना नहीं करता। स्वाभाविक है कि ऐसे में विद्यार्थी के पास अपने गुरु को देने के लिए सम्मान से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं बचती।
लेकिन आज शिक्षक का व्यवसाय है शिक्षण। आज यह काम एक व्यवसाय बन गया है, जीवनयापन का एक जरिया। जिस तरह पूँजीपति लोग कारखाने स्थापित करते हैं, ठीक वैसे ही पूँजीपतियों ने शिक्षा के कारखानों के रूप में स्कूल खोलने प्रारंभ कर दिए हैं। यही वजह है कि ये स्कूल एक तरह से विद्यार्थियों के उत्पादन का उपादान बन गए हैं। इस क्षेत्र में नैतिक-अनैतिक जैसी मान्यताएँ लगभग खत्म-सी होने लगी हैं।
आज इसलिए विशुद्ध व्यवसायिक मानसिकता के लोगों इस क्षेत्र को चुनना शुरू कर दिया है, क्योंकि वे जानते हैं कि अपनी व्यवसायिक मानसिकता के लोगों ने इस क्षेत्र को चुनना शुरू कर दिया है, क्योंकि वे जानते हैं कि अपनी व्यवसायिक बुद्धि से वे यहाँ भी तमाम तरह के हथकंडे अपना कर अपार धन कमा सकते हैं। इसी का दुष्परिणाम यह है कि आज गली-गली में सैकड़ों स्कूल खुले हैं, और वहाँ ऐसे लोग शिक्षण (?) का कार्य कर रहे हैं जो न तो अपने विषय में माहिर हैं और न ही शिक्षा के सौन्दर्यशास्त्र के विषय में ही कुछ जानते हैं।
आज स्कूलों में इतना अजीब माहौल है जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। वहाँ शिक्षक समुदाय में विचारों में साम्प्रदायिकता है, भाषागत अहं के टकराव हैं, अभिजात्य का दबदबा कायम रखने की निर्ममता है, प्रतिहिंसा है, ईर्ष्या है, कुंठा है, विचारहीन मस्तिष्कों का असम्बद्ध प्रलाप है, अपने अस्तित्व के मिट जाने के खतरे की काली छाया का मातम और बौखलाहट है, अज्ञान का अंधकार भी है। और ज्यादातर ऐसे लोग शिक्षण को अपना व्यवसाय बनाए हुए हैं जिन्होंने कभी इसके भीतर के सौंदर्य को देखने की जहमत ही नहीं उठाई, इसे पेट भरने का साधन मात्र माना।
Shruti Agrawal
WD
भाषा के शिक्षक हैं और वर्तनियों की गलतियाँ करते है, उच्चारण की गलतियाँ करते हैं, कविताओं की ठीक-ठीक व्याख्या नहीं कर पाते। वे स्वयं गाइड से पढ़ते हैं और विद्यार्थियों को भी गाईड से पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, और कई बार मजबूर भी।
विज्ञान पढ़ाते हैं लेकिन मानसिकता में कहीं से विज्ञान की छुअन नहीं दिखाई देती। अमीर खुसरो जिस छाप तिलक को छोड़ देने की बात करते हैं, ये विज्ञान पढ़ाने वाले रोज सुबह-शाम उसी छाप-तिलक में उलझे मिलते हैं, वैज्ञानिक चेतना को पूरी तरह तिलांजलि देकर।
ऐसे माहौल में निश्चित रूप से अच्छे शिक्षकों का मिलना एक विरल बात है। हालाँकि यह बात प्राचीन काल के संदर्भ में भी आज की तरह ही सच रही है। उस युग में भी सच्चे गुरु बहुत कम हुआ करते थे। इसलिए कबीर, मीरा, सूर, तुलसी, दादू, नानक-जैसे संत कवि बार-बार अपनी कविताओं में सतगुरु की बात करते हैं। वे बार-बार इस बात की ताकीद करते हैं कि सतगुरु का मिलना एक विरल घटना है।
आज मुश्किल यह है कि शिक्षकों के पास विद्यार्थियों के विषयगत प्रश्नों के जवाब तो होते हैं, लेकिन जीवन की जटिलताओं, मूल्यों से संबंधित सवालों के जवाब नहीं होते। ऐसे में जब विद्यार्थी जवाब-तलब करता है ( और यह तो उसका नैसर्गिक अधिकार है) तो उन्हें लगता है कि उनका अपमान किया जा रहा है, वे वस्तुस्थिति को समझ नहीं पाते।
मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों से देखा है और देख रहा हूँ आज के शिक्षक-शिक्षिकाओं के मन में विषय से हटकर पढ़ने में न तो किसी प्रकार की दिलचस्पी है और न ही वे इसे अपने आंतरिक विकास के लिए जरूरी समझते हैं, ज्यादातर लोग तो आंतरिक विकास को ही जरूरी चीज नहीं समझते! यही वजह है कि उनके पास बासी और उबाऊ जानकारियाँ रहती हैं, जिनमें विद्यार्थियों को किसी प्रकार की रुचि नहीं रहती।
लेकिन इसके विपरीत यदि शिक्षक जागरूक हो, यदि वह शिक्षा के सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को समझता हो, अहंकारों से मुक्त वह विनम्र हो, तो फिर ऐसा वातावरण बन सकता है जहाँ सचमुच सौहार्द्र के फूल खिल सकें, जहाँ एक बार फिर से शिक्षक और विद्यार्थियों के संबंध मधुर हो सकें।
जिन विद्यार्थियों को ऐसे शिक्षक मिल जाते हैं वे जीवन भर उनकी शिक्षा को याद रखते हैं। जहाँ भी मुश्किलों का अंधेरा उन्हें घेरता हो वहाँ ज्ञान का उजास उन्हें सही राह की पहचान करने में मदद करता है। और तब ऐसे विद्यार्थी ऐसे सच्चे शिक्षकों के प्रति कृतज्ञ होते हैं। वे मन से कह पाते हैं-बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताए।