भारत में आरती हिन्दी की और तिलक अँग्रेजी का

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- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
त्रिभाषा-सूत्र का तीसरा सूत्र काफी खतरनाक है। अँग्रेजी को अनिवार्य रूप से पढ़ाना करोड़ों बच्चों की मौलिकता को नष्ट करना है। उनके आत्मविश्वास की जड़ों को हिला देना है। उनमें हीनता का भाव भर देना है। सबसे अधिक बच्चे अँग्रेजी में ही अनुत्तीर्ण होते हैं। सबसे अधिक ध्यान उन्हें अँग्रेजी पर ही देना पड़ता है।

हर साल हम लाखों बच्चों की दिमागी हत्या क्यों करते हैं? देश में कितने लोगों को अँग्रेजी सीखने की जरूरत है? मान लीजिए कि हर साल पाँच लाख लोगों को अँग्रेजी सीखने की जरूरत है तो वे सीख लें। छः माह में सीख लें, सालभर में सीख लें, जैसे कि रूसी, जर्मन या फ्रांसीसी सीखी जाती है। उसके लिए 15-16 साल तक थपेड़े खाने की क्या जरूरत है? पाँच लाख को सीखना है और उसके लिए पाँच करोड़ बच्चों को अँग्रेजी की कड़ाही में क्यों तला जाता है?

राष्ट्रभाषा के साथ जैसा छल-कपट भारत में होता है, वैसा दुनिया के किसी भी देश में, किसी भी भाषा के साथ नहीं होता। उसका ओहदा महारानी का है और काम वह नौकरानी का करती है। दुर्योधन के दरबार में उसे द्रौपदी की तरह घसीटा जाता है और भारत के बड़े से बड़े योद्धा- जनवादी कॉमरेडों, लोहियावादी नेतागण, संघी संचालकगण, भाजपा के हिन्दीवीरों, गाँधी की माला जपने वाले कांग्रेसियों और सर्वोदयियों तथा दयानंद के शिष्यों- सभी के मुँह पर ताले पड़े रहते हैं। वे बगलें झाँकते हैं और खीसें निपोरते हैं।

हिन्दी दिवस पर हिन्दी की आरती उतारते हैं और तिलक अँग्रेजी के माथे पर कर देते हैं। संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी हमारी नाक होती है और स्वराष्ट्र में उसी नाक को हम अँग्रेजी के बूटों पर रगड़ते रहते हैं।

मैं अँग्रेजी का विरोधी नहीं हूँ। किसी भाषा या साहित्य से कोई मूर्ख ही नफरत कर सकता है। कोई स्वेच्छा से किसी विदेशी भाषा को पढ़े, बोले, लिखे, इसमें क्या बुराई है? जो जितनी अधिक भाषाएँ जानेगा, उसक े लिए उतनी ही अधिक खिड़कियाँ खुलेंगी। उसकी दुनिया उतनी अधिक बड़ी होगी- संपर्कों की, सूचनाओं की, अनुभूतियों की, अभिव्यक्तियों की!

लेकिन भारत में कुछ अजीब-सा खेल चल रहा है। स्वभाषाओं के सारे दरवाजे बंद किए जा रहे हैं और विदेशी भाषाओं की सारी खिड़कियाँ भी। जो काम सारे दरवाजे और सारी खिड़कियाँ मिलकर करते हैं, वह काम सिर्फ एक खिड़की से लिया जा रहा है। उस खिड़की का नाम है- अँग्रेजी। अगर आप अँग्रेजी नहीं जानते तो कुछ नहीं जानते।

अपनी भाषा के जरिए हमें क्या मिल सकता है? सब-कुछ मिल सकता है लेकिन कोई भी बेहतर चीज नहीं मिल सकती। हर बेहतर चीज के लिए अ ँग्रेज ी का शरणागत बनना पड़ेगा। बेहतर शिक्षा, बेहतर नौकरी, बेहतर व्यापार, बेहतर व्यवसाय, यहाँ तक कि बेहतर जिंदगी भी अ ँग्रेज ी के बिना किसी को नसीब नहीं। क्या ऐसी मजबूरी दुनिया के किसी अन्य देश में किसी ने देखी है?

विदेशी भाषा का ऐसा रुतबा ब्रिटेन के किसी भी पुराने गुलाम देश में नहीं है। लगभग पचास पुराने गुलामों में से भारत ही ऐसा देश है, जो भाषाई दृष्टि से किसी भी वर्तमान गुलाम से भी बड़ा गुलाम है। भाषा की गुलामी, गुलामियों में सबसे बड़ी गुलामी होती है। जो-जो राष्ट्र स्वतंत्र होते हैं, सबसे पहले वे भाषाई गुलामी के गट्ठर को उतार फेंकते हैं। यह काम रूस में लेनिन ने किया, तुर्की में कमाल पाशा ने किया, इंडोनेशिया में सुकार्नो ने किया और एशिया, अफ्रीका तथा लातीनी अमेरिका के दर्जनों छोटे-बड़े नेताओं ने किया। लेकिन भारत में जैसा भाषाई पाखंड चला, वैसा कहीं भी नहीं चला।

संविधान का जैसा उल्लंघन भारत में होता है, दुनिया में कहीं नहीं होता। संविधान में हिन्दी को राजभाषा बनाया गया और कहा गया कि धीरे-धीरे अ ँग्रेज ी को हटाया जाए! संविधान को लागू हुए पचास साल हो गए और इन पचास सालों में हुआ क्या? प्रयत्न यह हुआ कि अ ँग्रेज ी को जमाया जाए! धीरे-धीरे वह जम गई। ऐसी जम गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति की भी हिम्मत नहीं कि उसे छेड़ सकें। अ ँग्रेज ी का इस्तेमाल करते वे एक क्षण के लिए भी नहीं सोचते कि भारत आजाद देश है और वे आजाद देश के प्रतिनिधि हैं।

जब वे अ ँग्रेज ी में बोलते हैं तो वे अपने आचरण से देश के लगभग 95 करोड़ लोगों को गूँगा-बहरा बना देते हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या उन्हें समझ-बूझ नहीं पाती। सिर्फ तीन से पाँच प्रतिशत लोगों के लिए रेडियो, टी.वी., संसद, सरकार और देश का समय खराब किया जाता है। कोई उन्हें डाँटने-फटकारने वाला नहीं है। देश में कोई दयानंद नहीं है, कोई गाँधी नहीं है, कोई लोहिया नहीं है।

जो कुछ प्रभावशाली बुद्धिजीवी हैं, पत्रकार हैं, समाजसेवी हैं, वे मर्यादा का कोड़ा चला सकते हैं लेकिन या तो वे लिहाज-मुरव्वत में फँसे रहते हैं या उन्हें भी बेहतर नौकरियों और अन्य मेहरबानियों का इंतजार रहता है। नतीजा यह है कि हर साल हिन्दी दिवस आता है और आजाद भारत के मुँह पर गुलामी का एक नया पलस्तर थोपते हुए आगे बढ़ जाता है।

हिन्दी को अगर उसका उचित स्थान मिलना है तो यह काम ऊपर, एकदम ऊपर से शुरू होना चाहिए। यह तर्क बिलकुल बोदा है कि संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी बोलना सरल है और भारत में कठिन। लोकतंत्र का इससे बढ़कर मजाक क्या हो सकता है? यह नौकरशाही तख्ता-पलट है। जिस दिन देश के सर्वोच्च नेता संसद में और उसके बाहर अपने सर्वोच्च नीति-वक्तव्य हिन्दी में देंगे, उस दिन नौकरशाही के तख्ता-पलट का तख्ता अपने आप उलट जाएगा। क्या यह कम दुःखद नहीं है कि अटलजी जैसे प्रखर वक्ता लाल किले से अपना हिन्दी भाषण लिखकर देने लगे हैं? अँगरेजी में लिखे हुए भाषण पढ़ने की आदत का ही यह बुरा नतीजा है।

देश के उच्च पदस्थ नेताओं को मजबूर किया जाना चाहिए कि वे अपने समस्त औपचारिक भाषण देश और विदेश में हिन्दी में दिया करें। अगर अनुवाद की सुविधा उनके पास नहीं होगी तो किसके पास होगी? हिन्दी सलाहकार समितियों में यह पूछा जाना और बताना हास्यास्पद है कि क्लर्कों ने कितने पत्र हिन्दी में लिखे और कितने अ ँग्रेज ी में? असली प्रश्न तो यह है कि मंत्रालय के सचिवों ने एक-दूसरे को, अपने-अपने मंत्रियों को और मंत्रिमंडलीय सचिव को कितनी टिप्पणियाँ और कितने पत्र हिन्दी में लिखे?

कितने कानून मूल हिन्दी में बने और कितने नीति-वक्तव्य हिन्दी में लिखे गए? इसी प्रकार मूल प्रश्न यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. के कितने शोध-प्रबंध (विज्ञान और कला विषयों के) हिन्दी में लिखे गए? आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अब से 35 साल पहले अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध प्रबंध हिन्दी में लिखने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर हंगामा हुआ था लेकिन उसके बाद आज तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक भी शोध प्रबंध हिन्दी में नहीं लिखा गया। जब तक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दी शीर्ष पर नहीं होगी, भारत का आम आदमी सम्मान की जिंदगी नहीं जी पाएगा।

इसका मतलब यह नहीं कि हिन्दी अन्य भाषाओं का हक मार ले। वास्तव में जब तक समस्त भारतीय भाषाएँ अपने-अपने प्रांतों में सुप्रतिष्ठित नहीं होंगी, हिन्दी कभी भी केंद्र की भाषा नहीं बन पाएगी। प्रांतों में जब अ ँग्रेज ी का वर्चस्व बढ़ता है तो वह कई गुना शक्तिशाली होकर हिन्दी पर प्रहार करती है। इसलिए पिछले वर्षों से हमने हिन्दी दिवस को भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाना शुरू कर दिया है।

समस्त हिन्दीभाषी राज्यों के मुख्यमंत्रियों का पहले एक सम्मेलन बुलाकर संपूर्ण हिन्दी क्षेत्र के लिए एक संयुक्त हिन्दी नीति का निर्माण किया जाना चाहिए ताकि मानक हिन्दी, मानक वर्तनी, मानक शिक्षा माध्यम, मानक मूल ग्रंथ और मानक शासकीय भाषा-नीति बने और उसके बाद अहिन्दीभाषी मुख्यमंत्रियों से भाषा-नीति के बारे में उनका सीधा संवाद आयोजित किया जाना चाहिए। यह भी जरूरी है कि परस्पर भाषा-शिक्षण, ग्रंथानुवाद, शब्दकोश आदि के महत्वपूर्ण कार्यक्रम अखिल भारतीय स्तर पर तैयार किए जाएँ। त्रिभाषा-सूत्र के ढोंग को चलाने के बजाए द्विभाषा-सूत्र को पूरी ईमानदारी से चलाया जाए।

त्रिभाषा-सूत्र का तीसरा सूत्र काफी खतरनाक है। अ ँग्रेज ी को अनिवार्य रूप से पढ़ाना करोड़ों बच्चों की मौलिकता को नष्ट करना है। उनके आत्मविश्वास की जड़ों को हिला देना है। उनमें हीनता का भाव भर देना है। सबसे अधिक बच्चे अ ँग्रेज ी में ही अनुत्तीर्ण होते हैं। सबसे अधिक ध्यान उन्हें अ ँग्रेज ी पर ही देना पड़ता है। हर साल हम लाखों बच्चों की दिमागी हत्या क्यों करते हैं? देश में कितने लोगों को अ ँग्रेज ी सीखने की जरूरत है?

मान लीजिए कि हर साल पाँच लाख लोगों को अ ँग्रेजी सीखने की जरूरत है तो वे सीख लें। छः माह में सीख लें, सालभर में सीख लें, जैसे कि रूसी, जर्मन या फ्रांसीसी सीखी जाती है। उसके लिए 15-16 साल तक थपेड़े खाने की क्या जरूरत है? पाँच लाख को सीखना है और उसके लिए पाँच करोड़ बच्चों को अ ँग्रेज ी की कड़ाही में क्यों तला जाता है? बच्चों की सारी शक्ति अ ँग्रेज ी रटने में खर्च हो जाती है, उनका अन्य विषयों का ज्ञान सतही रह जाता है। यदि वे स्वभाषा में निष्णात हों तो विदेशी भाषा सीखना उनके बाएँ हाथ का खेल होगा। इसीलिए अ ँग्रेज ी की अनिवार्य पढ़ाई तत्काल खत्म की जानी चाहिए।

वैश्वीकरण और कम्प्यूटर के युग में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का पलड़ा हल्का होता जा रहा है, यह तर्क भी निराधार है। सारी दुनिया में अ ँग्रेज ी जानने वालों की जितनी संख्या है, उससे कहीं ज्यादा संख्या हिन्दी जानने वालों की है। हिन्दी और उसकी सखी भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी, नेपाली, उर्दू आदि के बोलने और समझने वालों की संख्या 70 करोड़ से भी ज्यादा है।

यह ठीक है कि अ ँग्रेज ी दुनिया के सिर्फ चार-पाँच देशों की भाषा होते हुए भी 100 से अधिक देशों के भद्रलोक में इस्तेमाल होती है लेकिन हिन्दी भी लगभग दर्जनभर देशों में बड़े पैमाने पर बोली जाती है। लगभग डेढ़ सौ देशों के विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जाती है। सौ से अधिक देश ऐसे हैं, जिनमें आपको कुछ न कुछ हिन्दीभाषी अवश्य मिल जाएँगे। आज दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में हिन्दी का ई-मेल जाता है। हिन्दी के वेबसाइट और पोर्टल खुल चुके हैं।

यदि भारत के प्रतिभाशाली नौजवान कम्प्यूटर-विद्या को परदेशी भाषा में इतना आगे बढ़ा सकते हैं तो स्वदेशी भाषाओं में तो उसे पता नहीं कहाँ तक ले जा सकते हैं। भारत में कम्प्यूटर के फैलते हुए बाजार ने एक नया तर्क उभारा है। वह यह कि कम्प्यूटर भाषा का गुलाम नहीं है। जो भाषा उसे बुलाती है, वह उसी में चला जाता है। अगर वह अ ँग्रेज ी से चिपका रहेगा तो अ ँग्रेज ी की तरह वह मुठ्ठीभर लोगों तक सीमित हो जाएगा। अगर उसे सारे भारत में फैलना है तो उसे भारतीय भाषाओं के महापथ पर चलना ही होगा।

आज करोड़ों की संख्या में छप रहे हिन्दी अखबार और करोड़ों श्रोताओं को एक साथ सम्मोहित करने वाले हिन्दी चैनलों ने रूपर्ट मर्डोक और बिल गेट्स जैसे लोगों को भारत के द्वार खटखटाने के लिए मजबूर कर दिया है। परमाणु बम तो अभी शुरुआत है, भारत ज्यों-ज्यों शक्ति की सीढ़ियाँ चढ़ता जाएगा, 21वीं सदी में हिन्दी ही अ ँग्रेजी को विश्व मंच पर टक्कर लगाएगी। हिन्दी के पीछे संस्कृत का अपार शब्दकोश है, करोड़ों लोगों का व्यवहार-कोश है और सैकड़ों वर्षों का अनवरत अभ्यास है।

हिन्दी अपने दम-खम से आगे बढ़ रही है। वह सरकारों और नेताओं की मोहताज नहीं है। वे अपना कर्तव्य निभाएँ तो अच्छी बात है। न निभाएँ तो न सही, लेकिन हर हिन्दीभाषी अगर कटिबद्ध रहे तो हिन्दी भी 21वीं सदी की विश्व-भाषा अवश्य बनेगी। हिन्दी वालों को हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं। दिल छोटा करने की जरूरत नहीं। हिन्दी का सूर्य विश्व के आकाश पर चमकने ही वाला है।
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