देवनागरी लिपि के तकनीकी खतरे

हिन्दी दिवस (14 सितंबर) पर विशेष

भाषा
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हर हाथ में मोबाइल फोन और हर घर तक इंटरनेट की पहुँच बनाने की कंपनियों की कोशिश के बीच हिन्दी भाषा के समक्ष नई प्रौद्योगिकी ने उसकी लिपि देवनागरी के लोप का खतरा पैदा कर दिया है। यह मानना है विशेषज्ञों का जो इस बात से चिंतित हैं कि मोबाइल फोन से एसएमएस करने और इंटरनेट से चिट्ठी लिखने में अँगरेजी भाषा की रोमन लिपि का इस्तेमाल हिन्दी लिखने में किया जा रहा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि दिनों दिन बढ़ते मोबाइल फोन और इंटरनेट के इस्तेमाल में सामग्री लिखने के लिए आमतौर पर लोग अँगरेजी के की-बोर्ड का इस्तेमाल कर रहे हैं और ज्यादातर रोमन लिपि में हिन्दी लिख रहे हैं जिसमें शब्दों का उच्चारण तो हिन्दी का होता है लेकिन वह लिखी रोमन की वर्णमाला में जाती है।

इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इस तरह का प्रयोग स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ज्यादा कर रहे हैं जो भविष्य के नागरिक हैं। उनमें यदि शुरू से ही हिन्दी में इनपुट देने की प्रवृत्ति नहीं होगी तो आने वाले समय में देवनागरी लिपि के लुप्त होने का खतरा पैदा हो जाएगा।

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वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव भी इस चिंता से सहमत दिखे। उनका कहना है कि इस प्रवृत्ति से हिन्दी की 'लिपि के लोप का खतरा' है। देव ने कहा कि लोग हिन्दी को सिर्फ बोली के तौर पर ले रहे हैं और उसकी लिपि पर विचार नहीं कर रहे हैं। कुछ अध्ययनों में कहा गया है कि 2013 तक भारत दुनिया में मोबाइल इस्तेमाल करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश होगा। मौजूदा समय में देश में करीब 40 करोड़ लोग मोबाइल का इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि इंटरनेट का उपयोग करने वालों की संख्या भी करोड़ों में है।

सरकार देश के ग्रामीण क्षेत्रों मोबाइल टेलीफोनी और इंटरनेट का उपयोग बढ़ाने पर जोर दे रही है और इस दिशा में आधारभूत ढाँचे का विस्तार किया जा रहा है। सेवा प्रदाता कंपनियों को भी भारत के गाँवों में बाजार दिख रहा है। ऐसे में इन दोनों माध्यमों का इस्तेमाल करने वाले लोगों में हिन्दी लिखने के लिए अँगरेजी भाषा का उपयोग जारी रहा तो स्थिति की विकटता को समझा जा सकता है।

देव ने कहा कि देश में प्रौद्योगिकी की सख्त आवश्यकता है लेकिन हिन्दी के विकास के लिए हिन्दी के की-बोर्ड के इस्तेमाल की भी जरूरत है और इस बात का सर्वेक्षण करने की आवश्यकता है कि कितने लोग लिखने में हिन्दी के की-बोर्ड का उपयोग कर रहे हैं।

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उन्होंने कहा कि कुछ मोबाइलों में हिन्दी की 'की' मौजूद है लेकिन इसका कितने लोग इस्तेमाल करते हैं? उन्होंने कहा कि कुछ कंपनियों ने फोनेटिक की बोर्ड के जरिये रोमन लिपि को देवनागरी में तब्दील करने की तकनीकी पेश की है और इस रचनात्मकता का स्वागत किया जाना चाहिए। इस स्थिति से बचने के बारे में उन्होंने कहा कि भारत, भारतीयता और भारतीय भाषाओं को बचाने की पहल देश के भीतर से करनी पड़ेगी।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर राधेश्याम दुबे ने भी कहा कि मोबाइल और इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल के साथ देवनागरी लिपि के लिए खतरा पैदा हो गया है लेकिन इससे भयभीत होने की बजाय मुकाबला करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि इसका समाधान घरों में बच्चों को देवनागरी में लिखने पढ़ने की आदत डालकर ही निकाला जा सकता है।

उन्होंने कहा कि मीडिया इस प्रवृत्ति में अहम भूमिका निभा रही है क्योंकि टीवी पर एक बाइक के विज्ञापन में रोमन लिपि में ही लिखा आता है कि 'अब पीछे क्यों बैठना।' भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रोफेसर आनंद प्रधान ने कहा कि हिन्दी पर अँगरेजी के दबदबे की मुख्य वजह आम लोगों के भीतर 'भाषा के गौरव' की भावना का लोप होना है। उन्होंने कहा कि देश में आजादी के आंदोलन और 70 के दशक में समाजवादियों के नेतृत्व में चलाए गए हिन्दी आंदोलन का असर खत्म हो गया है जिसका स्थान बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने ले लिया है।

उन्होंने कहा, 'जब अपने ही लोगों में भाषा का गौरव खत्म होता है तो सचमुच में खतरा पैदा हो जाता है।' उन्होंने कहा कि इसी देश में भाषा के गौरव के लिए भाषाई आधार पर राज्यों का गठन हुआ था लेकिन आज ‘अँगरेजी ऐसी करेंसी बन गयी है जो नौकरी दिलाती है।’ इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि अँगरेजी भाषी होने पर कुछ भी न होने पर पाँच से सात हजार की सेल्स की जॉब मिलना आसान है जबकि हिन्दी के बल पर ऐसा नहीं हो सकता। प्रधान ने यह भी कहा कि देश में नवधनाढ्य वर्ग अपने बच्चों को अँगरेजी स्कूलों में पढ़ा रहा है और गरीब भी समझने लगा है कि अँगरेजी के बल पर ही आगे बढ़ा जा सकता है अत: चुनौती तो पैदा हो ही गई है।

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