नेपाल में हिंदी की जिद

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नेपाल में हिंदी में उपराष्ट्रपति पद की शपथ लेने वाले परमानंद झा ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की चिंदियाँ बिखेरते हुए दुबारा नेपाली भाषा में शपथ नहीं ही ली। उनका तर्क है कि अंतरिम संविधान में जब संशोधन करके हिंदी भाषा में शपथ लेने का प्रावधान कर दिया जाएगा, तभी वह दुबारा शपथ लेने के बारे में सोचेंगे।

बेशक उनकी इस दलील में दम है कि नेपाल के नागरिकों को अपनी-अपनी मातृभाषाओं में शपथ लेने का अधिकार होना चाहिए मगर वह भूल रहे हैं कि नेपाल में संविधान सभा अभी संविधान बनाने का काम पूरा नहीं कर सकी है इसलिए अंतरिम संविधान और सुप्रीम कोर्ट की उस संबंध में व्याख्या ही अंतिम मानी जानी चाहिए।

हिंदी में शपथ लेने की अपनी जिद पर अड़े रहने के बजाय वे नेपाल के संविधान में हिंदी को उसका स्थान दिलाने का प्रयास करते तो यह ज्यादा उचित होता। वैसे यह सही है कि तराई में हिंदी आमतौर पर बोली और समझी जाती है, लेकिन वहाँ बोलियों के रूप में तो भोजपुरी और मैथिली का ज्यादा असर है। तब सवाल उठता है कि हिंदी क्यों, मैथिली-भोजपुरी क्यों नहीं?

मधेसी पार्टियों ने संसद में यह बिल पेश किया है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए यह व्यवस्था होनी चाहिए कि वे जिस भाषा में चाहें शपथ ग्रहण कर सकें लेकिन प्रतिपक्षी एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के कारण सदन की बैठकें नहीं हो पा रही हैं। जाहिर है, परमानंद झा ने हिंदी के लिए दबाव बनाने के वास्ते यह रुख अपनाया है।

उनके इस रुख के कारण नेपाल में सीधे-सीधे भाषायी विभाजन हो गया है और नेपाली के उग्र समर्थकों ने उन पर जानलेवा हमले तक करने की कोशिश की है। जरूरत इस बात की है कि हिंदी सहित तमाम भाषायी समुदायों को उनके भाषायी अधिकार मिलें लेकिन इसके लिए तो संविधान सभा में ही सर्वानुमति बनानी होगी। सरकार के सामने भी संकट है कि इन निर्वाचित उपराष्ट्रपति महोदय का स्टेटस अब क्या होगा। उन्हें वेतन-भत्ते, सुरक्षा आदि दी जाए या नहीं!

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