हिन्दी के सुयोग्य विद्वान फादर कामिल बुल्के

- देवेन्द्रनाथ

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विदेशी विद्वानों के भारत से प्रभावित होने की लंबी परंपरा रही है, जिनमें कई चीनी, अरबी, फारसी और योरपीय यात्री शामिल हैं। ऐसे ही एक यात्री थे फादर कामिल बुल्के, जो भारत आए तो यहीं के हो गए और हिन्दी के लिए वह काम कर गए, जो शायद कोई हिन्दुस्तानी भी नहीं कर सकता था।

फादर कामिल बुल्के का जन्म रैम्सचैपल में हुआ। वे बेल्जियम के पश्चिमी प्रांत फ्लैंडर के निवासी थे। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी डिग्री थी जो उन्होंने लोवैन विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। 1934 में उन्होंने भारत का संक्षिप्त दौरा किया और कुछ समय दार्जीलिंग में रुके। उन्होंने गुमला (वर्तमान में झारखंड में) में 5 वर्षों तक गणित का अध्यापन किया। यहीं पर उनके मन में हिन्दी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वे बाद में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने लिखा है,'मैं जब 193 5 में भारत आया तो अचंभित और दुखी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अँगरेजी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।' उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की।

कामिल बुल्के और रामचरित मान स : बुल्के कभी-कभी धार्मिक ग्रंथों का गहराई से अध्ययन के लिए दार्जीलिंग में रुकते थे। उनके पास दर्शन का गहरा ज्ञान तो था, लेकिन वे भारतीय दर्शन और साहित्य का व्यवस्थित अध्ययन करना चाहते थे। इसी दौरान उनका साक्षात्कार तुलसीदास की रामचरित मानस से हुआ। रामचरित मानस ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया। उन्होंने इसका गहराई से अध्ययन किया। इस ग्रंथ की अनिर्वचनीय काव्यात्मक उत्कृष्टता के कारण वे इस ग्रंथ की पूजा करने लगे। उन्हें इसमें नैतिक और व्यावहारिक बातों का चित्ताकर्षक समन्वय देखने को मिला। अतः उन्होंने अपनी थीसिस के लिए इससे जुड़ा विषय चुना : रामकथा : उत्पत्ति और विकास'। इस पर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उनकी यह थीसिस भारत सहित पूरे विश्व में प्रकाशित हुई जिसके बाद सारी दुनिया बुल्के को जानने लगी।

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उनके द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंध की विशेषता यह है कि यह मूलतः हिन्दी में प्रस्तुत पहला शोध प्रबंध है। जिस समय फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय यह नियम था कि सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अँगरेजी में ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं। फादर बुल्के के लिए अँगरेजी में यह कार्य अधिक आसान होता पर यह उनके हिन्दी स्वाभिमान के खिलाफ था। उन्होंने आग्रह किया कि उन्हें हिन्दी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया। बुल्के बहु-भाषाविद् थे। उनका अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के साथ-साथ अँगरेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिन्दी पर भी संपूर्ण अधिकार था।

सन्‌ 1949 में बुल्के सेंट जेवियर महाविद्यालय, राँची के हिन्दी और संस्कृत विभाग के प्रमुख बने, लेकिन जल्दी ही श्रवण संबंधी परेशानी के कारण उन्हें पढ़ाने के कार्य से दूर होना पड़ा। उन्होंने शोध पर अपना ध्यान केंद्रित किया। भारत सरकार ने उन्हें बड़े ही आदर के साथ 1951 में भारत की नागरिकता प्रदान की।

वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित करने वाली समिति के सदस्य बने। भारत की नागरिकता पाने के बाद वे खुद को 'बिहारी' कहकर बुलाते थे। भारत सरकार ने हिन्दी में उनके योगदान को देखते हुए 1974 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। उनकी मृत्यु 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में हुई।

बुल्के की देन : बुल्के आजीवन हिन्दी की सेवा में जुटे रहे। हिन्दी-अँगरेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए सामग्री जुटाने में वे सतत प्रयत्नशील रहे। आज उनका शब्दकोष सबसे प्रामाणिक माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हजार शब्द जोड़े और इसे आजीवन अद्यतन भी करते रहे। बाइबल का हिन्दी अनुवाद भी किया।

फादर बुल्के ने कहा है,' 1938 में मैंने हिन्दी के अध्ययन के दौरान रामचरित मानस तथा विनय पत्रिका का परिशीलन किया। इस अध्ययन के दौरान रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ पढ़कर अत्यंत आंनद का अनुभव हुआ :

धन्य जनमु जगतीतल तासू।
पितहि प्रमोद चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताके।
प्रिय पितु-मातु प्रान सम जाके।

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