कठोर निर्णायक संकल्पों की प्रतीक्षा में है देश

Webdunia
डाॅ. कृष्णगोपाल मिश्र
‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा उछालती हुई सत्ता में आई भाजपा का शीर्ष नेतृत्व राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की शक्तिशाली छवि उभारने में पूरी मेहनत से जुटा है। एक सीमा तक उसे सफलता भी मिली है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के बाद देश ने पहली बार शक्तिशाली प्रधानमंत्री पाकर गर्व का अनुभव किया है। परिस्थितियां विषम हैं, चुनौतियां जटिल हैं, समस्त राष्ट्रवादी-शक्तियों को राष्ट्रहित में एक जुट होने की आवश्यकता है। दल, भाषा, धर्म, जाति, व्यक्तिगत स्वार्थों और संकीर्णताओं से ऊपर उठकर देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए सतत तत्पर रहने की आवश्यकता है।
 
 
सरकार की विदेश नीति दूर तक सफल रही है। सर्जि‍कल स्ट्राइक और नोटबंदी जैसे कठोर निर्णयों ने आंतरिक व्यवस्थाओं में सुधार के संकेत दिए हैं। जनता ने भी इन निर्णयों का खुलेदिल से स्वागत किया है, किंतु देश के अंदर और बाहर सक्रिय राष्ट्रविरोधी शक्तियां सरकार की छवि बिगाड़ने और आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा को आघात पहुंचाने के लिए सक्रिय हैं। एक ओर कश्मीर को अस्थिर करने के लिए पत्थरबाजों को अप्रत्यक्ष रूप से उकसाया जा रहा है। दूसरी ओर नक्सलवादियों की हिंसक गतिविधियां बढ़ रही हैं। तीसरी ओर चुनावों में हारे विपक्षी नेता गैर जिम्मेदाराना बयान देकर जनमानस को भ्रमित कर रहे हैं तथा चौथी ओर से सत्ताधारी दल के कुछ अति उत्साही कार्यकर्ता कभी ‘वंदेमातरम’ पर, कभी गौरक्षा पर तो कभी अन्य किसी स्थानीय मुद्दे पर अमर्यादित आचरण करते हुए जाने-अनजाने अपनी ही सरकार की छबि बिगाड़ने में लगे हैं।
 
आज सर्वाधिक संकट हमारे सैनिकों पर है। कश्मीरी अलगाववादी उन पर पत्थर फेंक रहे हैं, उनसे दुर्व्यवहार कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में नक्सली उन पर गोलियां बरसा रहे हैं और सरकार में बैठे लोग कठोर निर्णय लेने; इन राष्ट्रविरोधी दुर्दांत शक्तियों का दमन करने से हिचक रहे हैं। सैनिक हमारी राष्ट्रीय-शक्ति के प्रतिनिधि हैं; हमारी अस्मिता और गौरव के जीवंत प्रतीक हैं। वे राष्ट्रीय सीमाओं के समान, राष्ट्रीय-ध्वज के समान, वंदनीय, अभिनंदनीय और सर्वथा संरक्षणीय हैं क्योंकि उनके सम्मान और उनकी सुरक्षा में ही देश की सुरक्षा है, समाज की सुरक्षा है, संवैधानिक व्यवस्थाओं की सुरक्षा है। सैनिकों के साथ यदि इसी प्रकार की दुर्घटनाएं दोहराई जाती रहीं तो देश-विरोधी ताकतों का मनोबल बढ़ेगा और हमारा सुरक्षा कवच कमजोर होगा। हमारे सैनिक हमारे नेतृत्व के प्रत्येक आदेश और संकल्प को पूरा करने के लिए सतत समर्पित हैं। अतः हमारे नेतृत्व को भी कठोर निर्णय लेते हुए अलगाववादी असामाजिक अपराधिक तत्त्वों को नियंत्रित करने की खुली छूट सैनिकों को देनी होगी।
 
चिंता का विषय है कि अलगाववादियों-नक्सलवादियों के विरूद्ध की जा रही सैन्य कार्यवाहियों पर उंगली उठाने वाले तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता मानवाधिकारों की दुहाई देकर अपराधियों का संरक्षण कर रहे हैं। अपनी राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं की पूर्ति के लिए वामपंथी दलों के नेता इन राष्ट्र विरोधी शक्तियों का खुला समर्थन करके इनका हौसला बढ़ा रहे हैं। नित नई दुर्घटनाएं घट रही हैं। शासन-प्रशासन पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं, किंतु इन दुर्दांत हिंसक-शक्तियों के विरूद्ध प्रभावी कदम उठाने में समर्थ व्यवस्था में बैठे लोग सैनिकों के बलिदानों पर आंसू बहाकर, मुआबजा बांटकर, ‘शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा’ जैसे जुमले उछालकर अपने दायित्व की पूर्ति मान लेते हैं। टी.वी. चैनलों पर उत्तेजक बहसें आयोजित हो जाती हैं और फिर नई दुर्घटना घट जाती है। सारा घटनाचक्र एक निश्चित रस्मअदायगी सा घटित होता है। प्रश्न यह है कि ऐसी विडंबनापूर्ण दुखद स्थितियों के विषदंश देश को कब तक झेलने होंगे ? आखिर कब तक हमारे देश में राष्ट्र विरोधी शक्तियां यूं ही हिंसा का तांडव करती रहेंगी ?
 
इन ज्वलंत समस्याओं का समाधान क्या है और इन्हें सुलझाने की जबावदारी किनकी है? यह निश्चित है कि अलगाववाद, नक्सलवाद जैसी समस्याएं राजनीतिक होने के साथ-साथ सामाजिक भी हैं। अतः केवल राजनीति, सरकार और प्रशासन से इनका समाधान निकलना कठिन है। इनके समाधान की जबावदारी सरकार, विपक्ष, मीडिया, बुद्धिजीवी वर्ग और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी है। जब तक समाज के ये घटक एक जुट होकर समाज और राष्ट्र विरोधी शक्तियों को हर स्तर पर हतोत्साहित नहीं करेंगे, तब तक समाधान नहीं होगा। जब तक सत्ता और विपक्ष में बैठे हमारे नेता आगामी चुनावों में सत्ता पाने की दृष्टि से लाभ-हानि का गणित जोड़ते हुए निर्णय लेते रहेंगे; बयान देते रहेंगे, तब तक राष्ट्रीय-एकता और अखंडता को क्षतिग्रस्त करने वाली अलगाववादी दीमक का विनाश असंभव है।

राष्ट्रहित में राष्ट्रविरोधियों के विरूद्ध निर्मम निर्णय लिया जाना उनके साथ कठोर दंडात्मक कार्यवाही किया जाना अत्यावश्यक है। देश एक बार फिर इदिरा गांधी जैसे दृढ़निश्चयी व्यक्तित्व और उसके संकल्पित निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा है। अलगाववादी शक्तियों का उपचार वार्ता से नहीं, सैनिकों के शस्त्र की तीखी धार और राजदंड के प्रबल प्रहार से संभव होगा, समाज की सकारात्मक शक्तियों के संयुक्त प्रयत्नों से संभव होगा।
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