मास कल्चर... बाजार की देन

Webdunia
प्रोफेसर भावना पाठक 
मास कल्चर को समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने का श्रेय इस कल्चर को ही जाता है। वह कल्चर जो मूलतः किसी देश, समाज या समुदाय विशेष का न हो बल्कि जिसे मीडिया के जरिये प्रचारित-प्रसारित किया गया हो, मास कल्चर कहलाता है। इस कल्चर में आपको स्थानीय समुदायों और क्षेत्रीय संस्कृतियों की विविधता देखने को नहीं मिलेगी। यह वो कल्चर है जिसके लिए हर व्यक्ति एक उपभोक्ता या ग्राहक है। 



जो कल्चर लोगों के बीच से न जन्मा हो, उनकी दैनिक दिनचर्या, उनके उत्साह और उमंग को व्यक्त न करता हो, जो उन्हें महज एक ग्राहक की दृष्टि से देखता हो, वो कल्चर भला लोगों का अपना कल्चर कैसे हो सकता है ? अब सवाल यह उठता है कि - जो कल्चर हम में से किसी का नहीं, वो आया कहां से, उसे लाया कौन, उस कल्चर को लाने के पीछे किसकी क्या मंशा है और क्यों देखते ही देखते वो कल्चर आज पूरी दुनिया पर छा गया ? 
 
इन सारे सवालों का एक ही जवाब है "बाजार", मास कल्चर बाजार की देन है। औद्योगीकरण का रास्ता अपना कर विकसित देशों ने उत्पादों का अंबार तो खड़ा कर लिया, पर अब समस्या उन उत्पादों के खपत की थी। उन उत्पादों के खपत के लिए ग्राहकों की जरुरत थी और ग्राहक तैयार करने के लिए ही मास कल्चर की उत्पत्ति हुई और मास कल्चर को पूरी दुनिया में फैलाने के लिए मीडिया का सहारा लिया गया। पिज्जा, बर्गर, के.एफ.सी, मैक-डी, हिप-हॉप और पॉप म्यूजिक, मॉल कल्चर आदि मास कल्चर की ही देन है। 
 
उत्तर भारत का प्रसिद्ध भोजन क्या है, उड़ीसा की कौन-सी डिश प्रसिद्ध है, दिल्ली वालों के दिल को क्या भाता है इसका पता हमें हो न हो पर हम सबने कभी न कभी पिज्जा, बर्गर, फ्रेंच फ्राइज, फ्राइड राइस जरूर खाया होगा। इनके आउटलेट्स आपको किसी भी शहर में मिल जाएंगे। आज का युवा ढाबे पर खाना खाना खुद की शान के खिलाफ समझता है, उसे कैफे-कॉफी डे, मैक-डी. बरिस्ता भाता है। जंक फूड आज बच्चों की पहली पसंद है। 
 
यह सांस्कृतिक साम्राज्यवाद नहीं तो और क्या की हम धीरे-धीरे अपनी संस्कृति, अपना खान-पान, रहन-सहन, दादी-नानी के किस्से कहानी सब भूलते जा रहे हैं और हमें इसका एहसास भी नहीं। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए और हम पूरी तरह से बाजार के गिरफ्त में आ जाएं, उसके इशारों पर नाचें, दो मिनट ठहरिए और सोचिये हम किधर जा रहे हैं ?
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