प्रसंगवश : सेवा से दिल जीतने की कोशिश

संजय द्विवेदी
* भागवत जी का मध्यप्रदेश प्रवास

समाज में व्याप्त भेदभाव, छूआछूत को मिटाने के लिए संत रविदास ने अपना जीवन समर्पित  कर दिया। उनके आदर्शों और कर्मों से सामाजिक एकता की मिसाल हमें देखने को मिलती है  लेकिन वर्तमान दौर में इस सामाजिक विषमता को मिटाने के सरकारी प्रयास असफल ही कहे  जा सकते हैं। कहीं-कहीं आशा की किरण समाज क्षेत्र में कार्यरत सेवा भारती जैसे संस्थानों के  प्रकल्पों में दृष्टिगोचर होती है।


 
भारत गांवों में बसता है। गांवों में आज भी सामाजिक कुरीतियां कम नहीं हुई हैं। राष्ट्रपिता  महात्मा गांधी ने छुआछूत को मिटाने का नारा दिया। उनका जीवन भी सामाजिक समरसता की  मिसाल है। गांधीजी ने स्वाधीनता आंदोलन में जितने भी प्रकल्प तय किए, उनका ध्येय भारत  की सामाजिक विषमता को पाटना था। वे चाहते थे कि समाज में ऊंच-नीच, भेदभाव, लिंग  अनुपात और आर्थिक संपन्नता, विपन्नता की खाई खत्म हो और भारत एक लय, एक स्वर,  एक समानता और एक अखंडता के साथ मंडलाकार प्रवृत्ति में विश्व का नेतृत्व करे। कुछ ऐसी  ही परिकल्पना पं. दीनदयाल उपाध्याय ने भी की। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सामाजिक एकता के इसी प्रकल्प को आगे बढ़ा रहे हैं।
 
आजादी के लगभग 70 वर्षों के बाद भी भारत से गरीबी हटी नहीं है और सामाजिक विषमता  दूर नहीं हो सकी है। इस विषमता से समाज में लड़ाई-झगड़े, वैमनस्यता और ऊंच-नीच की  प्रवृत्ति बढ़ी है। इस समस्या को भारत में मिटाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आगे  आया और सेवा के अनेक प्रकल्प शुरू किए। उनके इन सेवा प्रकल्पों का उद्देश्य भेदभाव से  मुक्त, स्वाभिमानी-समरस और आत्मनिर्भर समाज बनाना था।

सेवा भारती, संघ का एक ऐसा ही संगठन है, जो शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक जागरण एवं  कौशल विकास के लगभग हजारों केंद्रों द्वारा प्रकल्प चला रहा है। सेवा भारती इस मुहिम में  25 वर्षों से जुटा हुआ है। वर्ष 2017 सेवा भारती का रजत जयंती वर्ष है। इस वर्ष में सेवा  भारती अपने प्रकल्पों का आत्मावलोकन कर रहा है और नए प्रकल्पों पर विचार कर रहा है।
 
रजत जयंती वर्ष पर सेवा भारती भोपाल के लाल परेड मैदान पर ऐसे हजारों श्रम साधकों का  संगम करने जा रहा है। इस संगम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन  भागवत स्वयं उपस्थित होंगे। इस आयोजन में श्रमिकों और गरीब व पिछड़े वर्गों के लिए जीवन  समर्पित करने वाले साधकों का सम्मान भी होगा।
 
आरएसएस निरंतर समाज के पिछड़े वर्गों की ओर देखता रहा है और विविध प्रकल्पों के जरिए  उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास कर रहा है। यह सच है कि संत रविदास एक  ऐसे संत थे जिन्होंने जीवनभर श्रम की साधना की। श्रम को प्रतिष्ठा करने वाले इस महान संत  के शिष्यों में काशी नरेश व भक्त मीराबाई भी रहीं। अपने धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास  के कारण संत रविदासजी ने दिल्ली के शासक सिकंदर लोधी को भी कह दिया था कि मैं प्राण  त्याग दूंगा, पर अपना धर्म नहीं छोडूंगा।
 
हमारे अनेक संतों की तरह संत रविदासजी ने भी जन्म के आधार पर ऊंच-नीच को नकार दिया  था। श्रम साधक समागम उन्हीं संत रविदासजी की जयंती पर आयोजित किया जा रहा है। माना  जा सकता है कि भोपाल के लाल परेड मैदान से संत रविदास की दृष्टि समाज के अंतिम छोर  तक पहुंचेगी और जाति, पंथ के आधार पर भेदभाव को मिटाने में कारगर हो सकेगी।
 
यह साधारण नहीं है कि मध्यप्रदेश आरंभ से ही संघ की एक प्रयोगशाला रहा है, जहां उसने  सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्रों में विविध प्रयोग किए हैं। बैतूल एक ऐसा जिला है, जहां  पर 200 गांवों को केंद्र बनाकर ग्रामीण विकास का एक नया अध्याय लिखने की पहल हुई है।  संघ के सरसंचालक मोहन भागवत ने ग्रामीण विकास के इन प्रकल्पों को सराहा है।
 
यह साधारण नहीं है कि संघचालक मोहनराव भागवत 7 से 13 फरवरी तक मध्यप्रदेश के इन  क्षेत्रों में रहते हुए, खुद सामाजिक बदलाव के इन दृश्यों का जायजा लेंगे। इसके तहत बैतूल  जिले में नशामुक्ति, आर्थिक-सामाजिक विकास, पर्यावरण जैसे विषयों पर हो रहे ये काम  निश्चय ही बदलते भारत की बानगी पेश करते हैं।
 
मध्यप्रदेश एवं देश के तमाम राज्यों में सरकारी स्तर पर भी कई योजनाएं श्रमिक और निचले  तबके के उत्थान के लिए बनती रही हैं। उन योजनाओं से इन वर्गों में कोई आमूलचूल बदलाव  हुआ हो, ऐसा कम ही दिखाई देता है। आजादी के 70 वर्षों में यदि सरकारी योजनाएं आम  आदमी तक पहुंच पातीं तो संत रविदास, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, बाबा साहेब आंबेडकर और पं.  दीनदयाल उपाध्याय के सपने सच हो जाते।
 
किंतु अफसोस है कि बदलाव की यह गति उतनी तेज नहीं रही जितनी होनी चाहिए। सरकारें  आज भी उन्हीं के लिए योजना बना रही हैं और हर बजट में अधिक वित्त का प्रावधान करती  हैं किंतु धरातल पर सूरतेहाल नहीं बदलते। यही कारण है कि सामाजिक विषमता अमरबेल की  तरह पनप रही है। इस वर्ग के जो व्यक्ति समाज का नेतृत्व करते हैं, वे भी आगे आ जाने पर  पीछे मुड़कर नहीं देखते हैं। बाद में अपने लोग ही उन्हें बेगाने लगने लगते हैं।
 
सरकारी स्तर पर इस सामाजिक विषमता को पाटना नामुमकिन लगता है। इसमें समाज और  सामाजिक संगठनों की सहभागिता जरूरी है। इसी ध्येय को आत्मसात कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक  संघ ने सामाजिक विषमता को दूर करने का बीड़ा उठाया है और सेवा प्रकल्पों में श्रम साधकों  के माध्यम से सामाजिक साधना का काम निरंतर किया जा रहा है।
 
भोपाल के इस महती आयोजन में शामिल होने वाले लोग दरअसल वे हैं, जो दैनिक रोजी-रोजी  कमाने के लिए रोज अपना पसीना बहाते हैं। इन वर्गों से संवाद और उनकी एकजुटता के बहाने  संघ एक बड़ी सामाजिक पहल कर रहा है, इसमें दो राय नहीं है।
 
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार  विभाग के अध्यक्ष हैं)

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