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अगर आपके प्रिय लेखक ‘निर्मल वर्मा’ हैं, तो जीने के लिए आपके पास ऐसी ही जिंदगी बची रह जाएगी…

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नवीन रांगियाल

‘जिस लेखक में तुम्हारी आस्था है, वो अपने मरने के बाद तुम्हे जीने के लिए कुछ ऐसी ही जिंदगी सौंप कर जाता है। अगर वो लेखक निर्मल वर्मा हो, तो फिर ठीक यही जिंदगी तुम्हारी जिंदगी में बची रह जाती है जीने के लिए’

वो एक अज्ञात खोह में ले जाकर तुम्हारा हाथ छोड़ देंगे। एक स्थाई और नीरव उदासी हमेशा के लिए तुम्हे सौंप जाएंगे, तुम अकेले रह जाओगे- नितांत अकेले। जैसे तुम उस दुनिया का हिस्सा नहीं हो, जिस दुनिया को तुम एक तरफ कहीं किसी मुहाने पर खड़े होकर देख रहे हो। तुम्हारी नींदें तुमसे मुंह मोड़ लेगी। वो तुम्हारे आसपास होंगी, तुम उन नींदों को सिर्फ देख सकोगे। भोग नहीं सकोगे। दिन और रात सब एक से हो जाएंगे।

जैसे जीते जी तुम्हारी आत्मा भटक रही है और तुम उसे भटकते हुए देख रहे हो।

फिर किसी रात अंधेरे में वो तुम्हें धीमे से छू लेंगे। किसी दिन छोड़ देंगे अकेला। तुम अकेले, एक तरफा अपने प्रेम के एक्सट्रीम पर हो सकते हो। तुम्हारे लिए सच और भ्रम दोनों एक ही है- दोनों में कोई अंतर नहीं। औरत तुम्हारे लिए दुनिया की सबसे ‘सिग्नीफिकेन्ट’ अवस्था है। 25 की उम्र के बाद दुनिया तुम्हारे लिए बिलकुल नई है, लेकिन अब तुम्हारी जिंदगी पहले से भी ज्यादा उदास, अकेली है। एक अंधेर गली सी- अंतहीन सुरंग सी है। अब सुख तुम्हारे बाएं हाथ का खेल है- उदासी तुम्हारा स्थाई भाव।

तुम एक ही समय में आस्तिक भी हो, नास्तिक भी। ईश्वर में तुम्हारी आस्था भी है। तुम उस पर शक भी करते हो। तुम बहुत रैंडम जीते हो, लेकिन लेखन में तुम्हारी आस्था अब भी मौजूद है। कभी-कभार तुम प्राचीन खण्डहरों- पत्थरों की तरह भारी-भरकम होकर जीते हो, लेकिन अपनी मृत्यु को तुम पत्तों की तरह झरते हुए देखना चाहते हो। तुम ताउम्र अपनी जिंदगी को पेज दर पेज खोजते हो, ढूंढते हो। तुम्हे अपनी जिंदगी का चार्म है। तुम्हे जिंदगी का अरण्य पसंद है।

… और अंत में तुम्हे अपनी मृत्यु से प्रेम है।

जिस लेखक में तुम्हारी आस्था है, वो अपने मरने के बाद तुम्हे जीने के लिए कुछ ऐसी ही जिंदगी सौंप कर जाता है। अगर वो लेखक निर्मल वर्मा हो, तो फिर ठीक यही जिंदगी तुम्हारी जिंदगी में बची रह जाती है जीने के लिए।

निर्मल वर्मा … इस शब्द के बारे में सोचते ही एक धुंध सी छा जाती है … प्राग और वहां गिरती बहती हुई सफ़ेद बर्फ आंखों के सामने तैरने लगती है… एक साथ हज़ारों लोग सड़कों के किनारों पर, बार में, क्लबों में … और यहां- वहां बीयर पीते दिखाई देते हैं… मैं खुद को शेरी…कोन्याक और स्लिबो वित्से के कॉकटेल के नशे में चूर पता हूं …

निर्मल वर्मा… इस नाम का कोई आदमी अब मौजूद नहीं है… बस एक नशा है ज़हन में और डबडबाती आंखों के सामने ओस की तैरती हुई सैकड़ों गलियां… गलियों में सिगरेट का बेपनाह… बेतरतीब… आवारा धुआं…

निर्मल वर्मा इस नाम का आदमी पहले भी कहीं मौजूद नहीं था… जो कुछ था वो एक धुंध थी… जो अब तक फैली हुई है किताबों की तहों में… पेज दर पेज… रात के गर्भ और उसके अंतहीन अंधेरे में… किताबों से सटे हुए शब्द और मेरी सांस के बीच कि ख़ामोशी में…

एक दिन रात को निर्मल वर्मा की “वे दिन” पढ़ते हुए…

अभी-अभी एक किताब पढ़कर रखी है और अब कुछ लिखने के बारे में सोच रहा हूं- एक लगातार सोच और तड़प लिखने के बारे में। लिखने के बारे में सोचना या इस प्रोसेस से गुजरना एक यातना भरा काम है। यह एक अभिशप्त जीवन है जिसे लिखने की या सोचने की यातना भुगतते रहना है- लगातार और हमेशा… राहत की बात सिर्फ यह है कि यह यातनाएं किश्तों में मिलती है- लिखकर ख़त्म किए जाने और लिखने की अगली शुरुआत के बीच में सुखद अनुभव भी होता है, वह जो अंतराल है वह सुखद है। फिर अगली यातना भोगने के लिए तैयार भी रहना होता है। लेकिन फिर भी और अल्टीमेटली लिखना मेरे लिए खुद को खोजने की तरह है- और नहीं लिखना खुद को खो देने की तरह या खुद को खोते जाने की तरह। यह हमें निर्मल वर्मा जैसे लेखक से ही सीखने को मिल सकता है। अगर निर्मल वर्मा आपके प्रिय लेखक हैं।

पढ़ना फिर भी लिखने की बजाए कुछ-कुछ- और थोडा-बहुत अधिक सुखद भरा है- जब आप रोशनी से भरे अपने कमरे में रात के समय नितांत अकेले निर्मल वर्मा की “वे दिन” पढ़ रहे हो। दिसम्बर की सर्दी हो। जब न सिर्फ प्राग में बल्कि आपके शहर में भी बर्फ गिर रही हो- लेकिन फिर किताब का ख़त्म होना भर है और आपको लौट जाना है यातना से भरे उसी वक़्त में क्योंकि हमारे शहर में प्राग की तरह बर्फ रोज नहीं गिरती।

आधी रात का समय है और सर में बहुत दर्द है- कमरे की झक सफ़ेद रोशनी आखों में अब चुभने लगी है। यह खुद को झोकने की तरह है- मैने कहा था न … यह एक अभिशप्त जीवन है- लिखना यातना से भरा काम है।

रायना बहुत खुबसूरत है प्राग की सफ़ेद बर्फ की तरह। मुझे रायना से प्रेम हो गया है और प्राग से भी… वह हमारे शहरों की तरह तो नहीं होगा- अराजक। भले ही हमारे शहरों में बर्फ रोज न गिरती हो उन्हें अराजक तो नहीं होना चाहिए… ? और फिर कोई जगह बर्फ न गिरने से बदसूरत तो नहीं हो जाती। मुझे प्राग दिखाई दे रहा है और रायना भी।

सच कहा था तुमने – यह किताब एक नशा है – शेरी, कोन्याक, स्लिबो वित्से – नशा तो होगा ही।

दोनों प्राग की सडकों, पहाड़ों और नाइट क्लब्स में बाहों में बाहें डाले घूमते रहे, चुमते रहे और बातें करते रहे- फिर एक दिन दोनों एक कमरे में घटे- एक मर्मान्तक चाह… एक अंतहीन खुलापन…

लेकिन वो किसी की नहीं हो सकती… नहीं हो सकी… हो सकता है निर्मल वर्मा आज भी उसे प्राग के खंडहरों में भटकते हुए कहीं खोजते हो…

मुझे रायना से प्रेम हो गया है
और प्राग से भी
वो खूबसूरत
 है
प्राग की सफ़ेद बर्फ की तरह
किताब में लिखी रायना से कहीं अधिक

वह मेरी आंखों में है
शब्दों से बाहर निकल सांस लेती हुई

सच कहा था तुमने
यह किताब एक नशा है
शेरी, कोन्याक, स्लिबो वित्से
और सिगरेट की बेपनाह धुंध
कार्ल मार्क्स स्ट्रीट बहक गई होगी
नशे में चूर होंगे
वहां के नाइट क्लब्स

वहीं किसी बार में
उदास बैठी होगी मारिया
रायना को खोजते होंगे निर्मल वर्मा
प्राग के खंडहरों में

मुझे रायना से प्रेम हो गया है
और प्राग से भी.


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