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संघर्ष और पीड़ा का कालकूट पी महाप्राण बने निराला

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

हिन्दी साहित्य में सूर्य की भांति अपनी कान्ति से राष्ट्रीय चेतना को आलोकित करने वाले सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' उन महानतम् तपस्वियों में से एक हैं, जिन्होंने आजीवन संघर्ष, पीड़ा, उपेक्षा, अपमान का विष पीकर उसे अपनी लेखनी की स्याही बनाते हुए सर्जन की महागाथा लिखी।

उनके प्रारम्भिक जीवन के बाद पिता रामसहाय तेवारी की मृत्यु के साथ ही उनके जीवन का यह कटु एवं यथार्थ सत्य है कि निराला के जीवन में दु:ख व संघर्ष का चोली-दामन जैसा साथ रहा है।

सुर्जकुमार तेवारी के साथ प्रारम्भ हुई उनकी साहित्यिक यात्रा 'मतवाला पत्र' में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के रुप में हुई। उनकी यह यात्रा हिन्दी साहित्य की उन रुढ़िवादी परम्पराओं को तोड़कर हुई जिनके पाश में साहित्य एक बन्धन में जकड़ा हुआ था।

निराला ने उन सभी को ध्वस्त कर, चुनौती देते हुए अपनी आक्रामकता के साथ साहित्य के अखाड़े में अपनी सशक्त भूमिका निभाई। वर्तमान के सन्दर्भ में 'निराला' को एक महान साहित्यकार के रुप में पूजा तो जाता है, लेकिन उनके जीवन संघर्षों तथा उनके सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त रही अन्तहीन वेदना की ओर दृष्टिपात करने की किसी में सामर्थ्य नहीं हो पाती है।

उनकी साहित्यिक अभिरुचि को जागृत करने का श्रेय निराला की पत्नी मनोहरा देवी की भक्ति भावना व उनके मुखारविन्द से बहने वाले मधुर गीतों को दिया जाना न्यायोचित होगा। तो, वहीं दूसरी परिस्थितियों में बंगाल में हिन्दी भाषा की उपेक्षा तथा बंगालियों के अलावा अन्य को हेयदृष्टि के साथ देखने की भावना भी एक मुख्य कारण रहा है।

निराला के अन्दर का वह प्रतिकार जागा और उनके ह्रदय में हिन्दी की प्राण प्रतिष्ठा करने का वह लावा जागृत हुआ जो हिन्दी को शिखर पर सुशोभित करने के लिए अपना सर्वस्व खोकर निर्माण बनने वाला था।
यहां तक कि निराला स्वयं को मिटाने की सीमा से भी नहीं चूकने वाले थे।

निराला की अक्खड़ता, आक्रामकता, तीक्ष्णता व सत्य के प्रति आग्रह की भावना किसी को भी भस्मीभूत करने की सामर्थ्य रखती थी। उनके जीवन में अर्थाभाव भले रहा,किन्तु उनके स्वाभिमान व आत्मसम्मान के समक्ष बड़े से बड़ा विद्वान, महारथी कहीं भी नहीं टिक पाया।

वे निराला जिनके लेखों को 1937 तक हिन्दी की ख्यातिलब्ध पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों द्वारा प्रकाशित करने से मना किया जाता रहा। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से उनकी रचनाएं लगातार वापस आती रही आईं। सम्पादकों से लेकर आलोचकों ने उन्हें उपेक्षित करने का कोई भी हथकण्डा नहीं छोड़ा तथा उनकी रचनाओं को कमतर आंकते रहे आए। लेकिन निराला ने उपेक्षा,आलोचना व मान-अपमान, पीड़ा,लगातार मिल रही अस्वीकार्यता का गरल पीकर निरन्तर स्वयं को परिष्कृत, परिमार्जित किया।

सम्पादकों से वाद-प्रतिवाद का क्रम उनके जीवन में चलता रहा आया। अपने साहित्यिक विरोधियों की बखिया उधेड़ने तथा वे सदैव विसंगतियों पर प्रहार करते रहे आए। वे साहित्यिक रौबदारी के आगे कभी नहीं झुके बल्कि दृढ़ता के साथ उसका प्रतिकार कर आभामण्डल के पीछे की कुटिलताओं के मुखौटे को उतारकर उन्हें यथार्थ का बोध कराया।

निराला में जितनी प्रतिभा एवं साहित्यिक कौशल व जीवन के विशद् अध्ययन तथा साहित्य की मर्मज्ञता से परिष्कृत दृष्टि थी। उसका अधिकांशतः हिस्सा निराला को स्वयं की स्थापना,विरोधियों को प्रत्युत्तर देने तथा हिन्दी की समृद्धि व उसकी जनस्वीकार्य प्राण प्रतिष्ठा में लग गया। आर्थिक तंगी व उदारता की पराकाष्ठा को पार कर निराला ने साहित्य में जो लिखा,उसे जिया और जनाकांक्षाओं की पूर्ति में स्वयं का हवन करने से कभी नहीं हिचकिचाए।

प्रकाशकों से लेकर सम्पादकों तक ने उनका भरपूर शोषण किया। हिन्दी के उस सूर्य को वक्त ने ताप में जलाकर उसकी आभा छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी,किन्तु उसके ह्रदय से प्रवाहित अजस्र स्त्रोत ने उसे महाकाय बना दिया।

हिन्दी के लेखकों की जो दुर्गति आज है,वही तब भी थी निराला भी इससे अछूते नहीं रहे। नवांकुरों की उपेक्षा के साथ उनके शोषण व अर्थाभाव के आगे साहित्यकार का प्रत्यर्पण कराकर उसके सर्जन को गिरवी रखने की परम्परा तब भी थी और आज भी है। जब निराला जैसा महान साहित्यकार उसका शिकार होने से नहीं बच पाया, तो वर्तमान की बात करने का कोई भी औचित्य ही नहीं बचता है।

निराला की विक्षिप्तता के पीछे यह सबसे महत्वपूर्ण कारण था कि प्रकाशकों, सम्पादकों ने उनकी लेखनी को गिरवी रख लिया तथा उनके सर्जन से उन्होंने भरपूर कमाई तो की, किन्तु निराला को उनके अपार सर्जन के बदले वह धनराशि उपलब्ध नहीं करवाई, जिसके वे हकदार थे। आर्थिक तंगी के कारण ही उन्हें छद्म नाम से लिखना पड़ा,अपनी कृतियों को औने-पौने दाम में प्रकाशकों को सौंप देना पड़ा। उनके ह्रदय में भी वह टीस सदा रही आई जो हर उस लेखक के अन्तस से तब उठती है,जब उसे अपना सर्जन अर्थ के लिए बेंच देना पड़े।

निराला की अपने जीवन काल में रविन्द्रनाथ टैगोर से रही आई प्रतिस्पर्धा के पीछे तथा स्वयं को उनसे श्रेष्ठतर समझने, सिध्द करने के पीछे का कारण हिन्दी के प्रति उपेक्षा तथा तत्कालीन समय में रविन्द्रनाथ टैगोर की प्रतिष्ठा के सामने अन्य सभी को कमतर आंकने की प्रवृत्ति रही है। दूसरी, चीज यह कि निराला इस बात से सदैव क्षुब्ध रहते थे कि सभी के लिए टैगोर ही मानक क्यों हों? वो भी तब जब जिसकी तुलना याकि उसे कमतर आंकने का प्रयत्न किया जा रहा है, उसके साहित्य का अवलोकन किए बिना कैसे किसी का भी निर्धारण कर दिया जाएगा?

हालांकि वे रविन्द्रनाथ टैगोर से प्रभावित भी दिखे। उनके अन्दर का विद्रोही इतना प्रखर था कि रामकृष्ण मठ के सन्यासियों के समक्ष अपना विरोध जताने के लिए उनके कमरों में चप्पल पहन कर चले जाते। नियमों की अवहेलना करते।

रामविलास शर्मा ने 'निराला की साहित्य साधना' में लिखा है कि वे काव्य प्रतिभा की महत्ता बतलाते हुए कहते कि―  "मेरी प्रतिभा रविन्द्रनाथ ठाकुर से घटकर नहीं है। सन्यासी हंसने लगते। इस पर सूर्यकान्त चिढ़कर कहते, यदि मैं भी प्रिन्स द्वारकानाथ ठाकुर का नाती होता, तो आप लोग मानते कि मेरे अन्दर महाकवि की प्रतिभा है।"
यदि वर्तमान सन्दर्भ में उनकी इस गर्वोक्ति को कसौटी पर रखकर देखा जाए तो क्या निराला अपने बारे में कुछ गलत कह रहे थे? यदि उनके जीवन में अर्थाभाव से उपजी समस्याएं न होतीं तो क्या उनकी साहित्य सृष्टि कहीं और ज्यादा विराट न होती? रामकृष्ण वचनामृत से लेकर विवेकानन्द साहित्य का अनुवाद, महाभारत टीका तथा अनेकों वे लेख जो पत्रिकाओं की चौखट से दुत्कार कर लौटा दिए गए। वे लेख जो उन्होंने छद्म नामों से लिखे तथा वे साहित्यिक कृतियां जिनको विपन्नता ने ग्रास बनाकर लील लिया तथा प्रकाशकों ने जिन पर से निराला का लोप कर दिया। क्या एक महान तपस्वी की तपस्या को खण्डित करने के ये सभी यत्न नहीं थे?

वह निराला जो हिन्दी व साहित्यकारों के अपमान पर महात्मा गांधी से भिड़ जाता रहा हो। जो जवाहर लाल नेहरू के द्वारा बनारस के साहित्यकारों को दरबारी परम्परा का बोलबाला कहते हुए नसीहत देने पर आग से उबल उठता रहा हो।

और नेहरू को घण्टों सुनाता रहा हो तथा इस बात की चुनौती भी देता हो कि आपको हिन्दी की समझ नहीं है। जो हिन्दी साहित्यकारों के अपमान, टिप्पणियों पर अपने हिताहित की चिन्ता किए बगैर गांधी, नेहरू, आचार्य नरेन्द्रदेव जैसे राजनेताओं से सीधी बहस कर उन्हें खरी-खोटी कहने का साहस रखता हो वह निराला ही हो सकता है।

लेकिन निराला के जीते-जी उनकी दुर्गति- दुर्दशा के जिम्मेदार साहित्यकारों , पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों ने अपनी श्रेष्ठता के अहं में निराला का समादर नहीं किया बल्कि उन्हें नारकीय जीवन जीने के लिए विवश किया।
नौ कविताओं के काव्य संग्रह 'अनामिका' से उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा एवं रचनाधर्मिता को स्वीकार्यता मिली। तत्पश्चात 'मतवाला में लेख,व्यंग्य बाण। पहली कहानी 'देवी' में दारागंज मुहल्ले की पगली लड़की की मृत्यु पर उसे जीवन्तता प्रदान की। चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा, कुल्ली भाट जैसी मार्मिक, सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों पर आधारित कहानियां लिखीं।

उन्होंने अपनी रचना 'तुलसीदास' में अपने जीवन व पत्नी मनोहरा देवी की मंञ्जुलता, राजनैतिक परिवेश, मुगलों की निकृष्टता-बर्बरता के साथ ही भारतीय वीरों के शौर्य एवं साहस व भारतीय चेतना के स्वर को झंकृत किया। उन्होंने इसका भी आह्वान किया कि 'राष्ट्र का सांस्कृतिक सूर्य' दैदीप्यमान हो। 'जागो फिर एक बार' ठीक ऐसी ही रचना है। सरोजस्मृति पिता की करुणा व अपने दायित्व न निभा पाने का शोकगीत है जिसने उन्हें अन्दर -अन्दर ही तोड़ कर रख दिया था।

निराला का सम्पूर्ण जीवन एक प्रयोगशाला और साहित्य का विषय बना रहा जिसमें उन्होंने पीड़ा,अपमान, आत्मग्लानि के साथ साहचर्य बनाकर साहित्य के शिखर को छुआ। 'वर दे वीणावादिनि वर दे' ने सचमुच निराला का हेतु बनाकर साहित्यकाश को शुभ्रता प्रदान की।

व्याधियों से जूझते निराला की अन्तिम विदा की पूर्व बेला पर शास्त्रीय विधि-विधान के साथ उनके द्वारा सर्जित 'राम की शक्ति पूजा' का जयगोपाल मिश्र ने पाठ कर उन्हें विदाई दी―

रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा
अमर रह गया,राम-रावण का अपराजेय समर।


हमारे यहां की अनूठी व दुर्भाग्यपूर्ण परम्परा के अनुसार व्यक्ति के जीते जी उसकी ओर मुंह फेर न निहारना और मृत्यु पर आंसू बहाकर उसका हितैषी बनने की संस्कृति के अनुसार निराला की मृत्यु के पश्चात उन पर केन्द्रित विशेषांकों की बाढ़ आ गई। निराला के प्रारम्भिक काल में जिस 'सरस्वती पत्रिका' के सम्पादक ने उनकी रचना लौटी दी थी, उनकी मृत्यु के बाद उसी 'सरस्वती' पत्रिका ने लिखा "हमारा मत है कि तुलसीदासजी के बाद से अब तक हिन्दी काव्य -जगत् में निराला जी की काव्य प्रतिभा का कोई कवि नहीं हुआ।"

राष्ट्रपति भवन में निराला जयन्ती समारोह हुआ जिसमें निराला पर फिल्म प्रदर्शन, साहित्यिक प्रदर्शनी, निराला की वाणी में टेप रिकार्डिंग का प्रसारण किया गया। उनके साहित्यिक समर्थकों, विरोधियों से लेकर संसद भवन में डॉ. राधाकृष्णन की उपस्थिति में उनका पुण्यस्मरण किया गया। निराला के चित्र का अनावरण करते हुए निराला जी को ऋषि-मुनियों की परम्परा का एक सच्चा कवि, विद्रोही, क्रान्तिकारी तथा युगप्रवर्तक कहा। उनके नाम पर 'निराला विद्यापीठ' की स्थापना का सुझाव 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' ने दिया।

निराला सचमुच में 'निराला' थे उनका अपने प्रति वह आत्मविश्वास या गर्वोक्ति अकारण नहीं थी जब वे स्वयं को 'महाकवि' कहते थे। समय की चाकी ने उनका मूल्याकंन अवश्य किया किन्तु उनके मरणोपरांत। काश, यह क्रम पलटे और दूजे 'निराला' को जीते जी वह सम्मान व प्रतिष्ठा मिल सके जिसका वह अधिकारी हो। उस महाप्राण निराला का अदम्य साहस, हिन्दी के प्रति ममतामयी अपार अनुराग तथा रचनाधर्मिता का वैराट्य सदैव राष्ट्र को आलोकित करता रहेगा।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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