परसाई : उत्पीड़ित शोषित अवाम की आवाज

Webdunia
एम.एम. चन्द्रा 
हिंदी साहित्य में गंभीर और प्रतिबद्ध व्यंग्य लेखन कबीर, भारतेंदु, बालमुकुंद गुप्त की एक लंबी परंपरा रही है। परसाई के समय में गंभीर साहित्यिक व्यंग्य रचना नहीं हो रही थी, साहित्य की इस धारा को साहित्यिक समाज में शूद्र यानि पिछड़ी व हल्की रचना समझा जाने लगा था। परसाई ने अपने समकालीन परिदृश्य की प्रत्येक विसंगति को पैनी नजर से देखना शुरू किया। नतीजतन, उन्होंने पहली बार लेखक के दायित्वबोध को व्यंग्य लेखन के साथ प्रतिबद्ध लेखन की शुरूआत की।



उन्होंने अपने लेखन में यह बात साबित कर दी कि कोई भी लेखक जाने अनजाने में किसी न किसी के प्रति प्रतिबद्ध लेखन करता है। उन्होंने अपने लेखन से आम पाठकों के मन में एक नई हलचल और मौजूदा संरचना में परिवर्तन के भाव को प्रमुखता के साथ उठाया। उनके इसी नजरिए ने उन्हें एक अलग गंभीर व्यंग्यकार के रूप स्थापित किया। उन्होंने स्वयं कहा है कि मैंने व्यंग्य को शुद्र से धारदार क्षत्रिय के रूप में बना दिया है।
 
हिंदी साहित्य के इतिहास में व्यंग्य को एक उन्नत धरातल पर पहुंचने वाले परसाई ने व्यंग्य लेखन और जीवन से कभी भी समझौता नहीं किया। समझौताविहीन लेखन के चलते उन्हें बहुत बड़ी कीमत तक चुकानी पड़ी थी। जब परसाई ने बहुत ही कम उम्र में जंगल विभाग और अध्यापन की नौकरी छोड़कर स्वतंत्र लेखन करना शुरू किया, यही वह समय था जब पूरा देश आजादी के जश्न में हिलोरें मार रहा था। इस आजादी को लेकर लेखक और लेखक संगठनों में तमाम तरह के मतभेद उभर कर सामने आए। साहित्य में आदर्शवादिता अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी। ऐसा लग रहा था जैसे नई आजादी, नया सपना व एक नया समाज बनने के लिए लोगों के दिलों में जज्बा एकदम साफ दिखाई दे रहा था। साहित्य के लिए समर्पित लोगों ने अपने अपने तरीके से इस आजादी का स्वागत किया। लेकिन कहते हैं कि एक सक्षम व्यंग्यकार की नजर सबसे पहले वहां पड़ती है जहां आम पाठक उसे पकड़ नहीं पाता, इसी पकड़ को लेखक आम लोगों तक पहुंचाता है। ऐसे समय में परसाई की व्यंग्य दृष्टि ने उस समय की विसंगतियों की ही तरफ सिर्फ इशारा ही नहीं किया बल्कि एक चेतना युक्त समाज निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।
 
परसाई ने अपने लेखन से एक बड़ी आबादी गरीब मजदूर और उत्पीड़ित और शोषित आबादी को बड़े पैमाने पर प्रभावित करने में सफल हुए कि यह आजादी मुकम्मल आजादी नहीं है। परसाई ने अपने लेखन में व्यंग्य को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और व्यंग्य से उन्हें स्पिरिट मिलने लगी। परसाई अपनी समग्र दृष्टि से समाज की नब्ज को पकड़ रहे थे। देश की आजादी के कुछ दिन बाद जैसे ही उनकी एक व्यंग्य रचना “प्रहरी” में प्रकाशित हुई तो लेखक वर्ग की बेचैनी और परसाई के प्रहार क्षमता को बड़े पैमाने इंगित किया जाना शुरू हो गया।
 
परसाई अपने समय की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना को पकड़ रहे थे। धीरे-धीरे उनकी आने वाली रचनाओं में गरीब, मजदूर और उत्पीड़ित जनता की आवाज को स्पष्ट रूप से सुना जाने लगा। उनकी रचनाओं में आम पात्रों की मजबूत, स्पष्ट और वैचारिक उपस्थित ने उन्हें प्रेमचंद के बाद हिंदी के एकमात्र ऐसे लेखक के रूप में स्थापित किया, जिन्होंने देश की अधिक से अधिक उत्पीड़ित आबादी का प्रतिनिधित्व किया और व्यंग्य के मूल्य, सौंदर्यबोध को वास्तविक जीवन से जोड़कर दिखाया। उन्होंने व्यंग्य की परंपरागत परिधि को नए सिरे से परिभाषित ही नहीं किया बल्कि समाज के व्यापक और ज्वलंत मुद्दों को आम जनता से जोड़ने में भी कामयाब रहे। यही नहीं उन्होंने मजदूर वर्ग के प्रश्नों को अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया।
 
उनकी व्यंग्य रचनाएं मन में सिर्फ गुदगुदी पैदा करने के लिए नहीं, बल्कि उस समय की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों को पाठकों के सामने खड़ा कर करती है। उन्होंने जहां एक तरफ अपनी रचनाओं के माध्यम से लगातार खोखली होती जा रही तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था पर प्रहार किया, वहीं दूसरी तरफ इस व्यवस्था में पिसते गरीब मजदूर वर्ग की सच्चाइयों से रूबरू कराते हुए नए समाज निर्माण के लिए उनका आवाहन भी किया।
 
परसाई अच्छी तरह से जानते थे कि जब तक वैज्ञानिक चेतना युक्त जनता को लामबंध नहीं किया जाएगा, तब तक किसी भी प्रकार का लेखन बेमानी है, इसलिए उन्होंने ने तत्कालीन लोकतंत्र के पाखंड और और उनके द्वारा अपनाए जा रहे रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए धार-दार प्रहार किया और अवाम को तर्क, विवेक और विज्ञान–सम्मत दृष्टि लेश किया। उन्होंने अपने व्यंग्य लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप अपनाकर जितनी मजबूती से अवाम की आवाज बनकर उभरे, जिसका कोई भी सानी नहीं है। वे आज भी हिन्दी साहित्य में अनमोल धरोहर है।
 
परसाई व्यंग्य लेखन के साथ-साथ अवाम में रहकर लोगों को संगठित करने और अवाम की चेतना को विकसित करने का काम भी निरंतर जारी रखा। इसलिए उन्होंने स्पष्ट शब्दों कहा था कि जब तक लेखक के पास सामाजिक अनुभव नहीं होगा, तब तक वह वास्तविक साहित्य लिखा ही नहीं सकता। उन्होंने समय-समय पर होने वाले सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और सामाजिक विसंगतियों के प्रति गहरा सरोकार रखा। यही कारण था कि परसाई ने अपने समय का रचनात्मक उपयोग बड़े पैमाने पर करके अपने समय से मुठभेड़ की और नए समाज निर्माण के सपनों को जिंदा रखा।
 
परसाई ने मार्क्सवाद का विधिवत अध्ययन किया और अपने लेखन और जीवन में लागू किया उन्होंने एक स्थान पार लिखा है कि ‘मैं श्रमिक आंदोलन से भी सम्बद्ध हो गया। तभी मेरा संपर्क मुक्तिबोध से हुआ और उन्होंने मेरे मार्क्सवादी विश्वासों को मजबूत तथा दृष्टि को बिलकुल साफ और महीन कर दिया’। परसाई के बहुत करीबी कान्ति कुमार जैन लिखते हैं कि ‘मार्क्सवाद से हुई दोस्ती ने बताया कि परसाई लड़ो, लड़ो अपने लिए ही नहीं, दुनिया के लिए लड़ो, दुनिया को साथ लेकर लड़ो। लड़ने के लिए लेखन को हथियार बनाओ, तुम्हें कालजयी साहित्य नहीं लिखना है - जो साहित्य अपने समय के साथ नहीं है, वह समयजयी क्या होगा। सो पार्टनर स्तंभ लिखो, कॉलम लिखो, और अंत में लिखो, कबीरा खड़ा बाजार में लिखो, तुलसीदास चंदन घिसे लिखो, लिखने को हथियार बनाकर लिखो’।
 
परसाई उत्पीड़ित शोषित वर्ग का प्रतिनिधि करते थे। उनका सम्पूर्ण लेखन इसी वर्ग को समर्पित था। इनके लेखन में गरीबी उत्पीड़न शोषण को आप स्पष्ट रूप से देख सकते है। नौकरी छोड़कर परसाई ने अल्प साधन में लेखन के क्षेत्र में शुरू से लेकर अंत तक बने रहे उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गई थी कि यदि वे चाहते तो बहुत सारी सुख सुविधाओं के साथ किसी बड़े शहर में रहते लेकिन उन्होंने एक छोटे से शहर में ही रहना स्वीकार किया और वही से पूरी दुनिया का अवलोकन और लेखन करते रहे।
 
आज हम देखते हैं, उनके लेखन को कोई भी देश या जड़वादी धारा बांध नहीं सकी। परसाई का स्वतंत्र चिंतन उत्पीड़ित वर्ग की सतह से जुड़ा हुआ है। उनका लेखन भाषा शिल्प और विचार देश-विदेश की तमाम सीमाओं को पार करता हुआ आगे बढ़ा। परसाई की रचनाएं पहले के समय में भी प्रासंगिक थीं और आज भी है और यदि यही स्थिति रही तो भविष्य में भी रहेंगी।
 
परसाई का व्यंग्य लेखन कमजोर वर्ग को हमेशा बल देता रहा, वही शोषक वर्ग को निरंतर भयभीत भी करता रहा। उन्होंने उत्पीड़ित वर्ग की घनघोर जिजीविषा से हमेशा प्रेरणा ली और अपनी व्यंग्य रचनाओं से उनकी जिजीविषा को मजबूत करता रहा। उनका सम्पूर्ण लेखन जीवन से जुड़ा हुआ था, इसीलिए उनका साहित्य आज भी अधिक से अधिक अवाम के साथ आसानी से जुड़ जाता है।
 
परसाई ने अंधेरे समय में रोशनी और चुप्पी को व्यंग्य के रूप आवाज दी। शासक वर्ग के खिलाफ, अंधेरे के खिलाफ लड़ाई लड़ी. उन्होंने विसंगतियों के खिलाफ लड़ने के लिए व्यंग्य को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। परसाई जीवन भर विचारधारात्मक और सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर विसंगतियों से लड़ते रहे। परसाई ने बालमुकुंद गुप्त, इंशाअल्ला खां, प्रेमचंद की परंपरा को विकसित किया है। मेरा अपना मत है कि प्रेमचंद के एकमात्र उत्तराधिकारी यदि कोई है तो वो परसाई है। आज परसाई के लेखन कर्म का मूल्यांकन करना वर्तमान पीढ़ी का दायित्व है. यह काम आज भी अधूरा है...।
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