हिन्दी आलेख : भाड़े का योद्धा

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राजकुमार कुम्भज
वर्ष 2017 में सबसे बड़ा चुनाव उत्तरप्रदेश विधानसभा का होना है। इसी चुनाव से वर्ष 2019 में चुनी जाने वाली केंद्र सरकार का भविष्य भी सुनिश्चित किया जाएगा। उत्तरप्रदेश में लगभग सभी राजनीतिक दल भरपूर जोर लगा रहे हैं; लेकिन मुख्य मुकाबला समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी के बीच होता दिखाई दे रहा है।
अभी हाल-फिलहाल के हालातों से तो यही पता चल रहा है कि भाजपा यहां एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भरोसे ही मैदान में उतरने का मन बना चुकी है, जबकि नरेन्द्र मोदी का मुखौटा लगाकर भाजपा ने दिल्ली और बिहार में पराजय ही पाई है, किंतु कांग्रेस ने भाड़े के राजनीतिक-रणनीतिकार प्रशांत किशोर को खरीद लिया है। सपा और बसपा क्रमशः अखिलेश यादव और मायावती के नाम पर चुनाव लड़ना तय कर चुके हैं। भाड़े का योद्धा भी हाजिर है।
 
माना जा सकता है कि सपा और बसपा की नीतियों में कोई खास परिवर्तन नहीं होना है। भाजपा अभी तक तो अपने सीएम उम्मीदवार का नाम भी तय नहीं कर पाई है। उत्तरप्रदेश में सत्ता की आस लगाए बैठे अमित शाह और नरेन्द्र मोदी को उत्तरप्रदेश में पार्टी उम्मीदवारों का चयन करने में अच्छी-खासी उठक-बैठक उठाना पड़ रही है। 
 
भाजपा के रणनीतिकार दलितों, पिछड़ों और मध्य वर्ग का समीकरण बनाने में जुटे हैं। कांग्रेस ने भाड़े के प्रशांत किशोर के सामने अपना आत्मसमर्पण कर दिया है। उत्तरप्रदेश में राजनीतिक दांव-पेंच का खेल शुरू हो गया है।
 
इस मामले में भाजपा को थोड़ा पीछे धकियाते हुए कांग्रेस ने भले ही भाड़े का योद्धा सामने किया हो, लेकिन अपना पहला राजनीतिक दांव तो चल ही दिया है। पहले नरेन्द्र मोदी और फिर नीतीश कुमार को क्रमशः दिल्ली और पटना में ताजपोशी करवा देने के बाद प्रशांत किशोर की पूछ-परख का विस्तार हुआ है और कई-कई दल उन्हें भाड़े पर लेना चाहते हैं। अभी उन्होंने अपना भाड़ा तय करके उत्तरप्रदेश चुनाव में कांग्रेस के लिए अपनी सेवा देना तय कर लिया है। तयशुदा भाड़े पर तयशुदा सेवा के फॉर्मूले पर प्रशांत किशोर ने काम भी शुरू कर दिया है।
 
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने फेयर एंड लवली पॉलिटिक्स का जो बाजारू जुमला कालेधन के संदर्भ में उछाला है, उससे तो यही जाहिर होता है कि राहुल गांधी के भाषणों के बीच-बीच में प्रशांत किशोर ने तड़का लगाना शुरू कर दिया है।
 
अभी ये कहना कठिन है कि लकड़ी के पांवों पर चलते हुए अपना कद ऊंचा दिखाने का करतब दिखाने वाली कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में फिर से अपने पांवों पर खड़ा करने में यह भाड़े का योद्धा कहां तक कामयाब हो पाएगा?
 
अभी ये कहना कठिन है कि मुलायमसिंह यादव उर्फ नेताजी अपने पुत्र मुख्यमंत्री, अखिलेश यादव के नेतृत्व में उत्तरप्रदेश का यह चुनाव लड़ना सहजता से कहां तक स्वीकार कर पाएंगे? क्या वे 'नेताजी' होना भूल जाएंगे या कोई अलग अपना दल बनाएंगे?
 
अभी ये कहना कठिन है कि वर्ष 2017 में उत्तरप्रदेश विधानसभा का चुनाव हार जाने के बाद भी क्या मायावती बसपा प्रमुख बनी रहेंगी और मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी और के लिए खाली नहीं करेंगी?
 
अभी ये कहना भी कठिन है कि भाजपा को उत्तरप्रदेश विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिल नहीं पाएगा और वह अपनी ओर से अपनी पार्टी का सीएम उम्मीदवार सुनिश्चित नहीं कर पाने की उलझन से बचते हुए क्या मायावती को यूपी की कुंजी सौंप देगी? भविष्य का निर्णय तो सिर्फ भविष्य के बीतकर वर्तमान तक आ जाने पर ही दिखाई देता है, किंतु पूत के पांव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं, जो वर्तमान की भूमिका से लिखे जाते हैं। 
 
प्रशांत किशोर को जीत का जादूगर समझने की भूल नहीं करना चाहिए, जो भी ऐसा कर रहे हैं, वे न सिर्फ अपना बल्कि अपनी पार्टी, अपने देश और सबसे बड़ा अपने देश के लोकतंत्र का नुकसान कर रहे हैं। 
 
भाड़े का योद्धा सिर्फ इसलिए लड़ता है कि वह लड़ना जानता है और इसके लिए वह एक तयशुदा रकम वसूलता है। वह सेवाएं बेचता है और बदले में मोटी रकम खेंचता है। उसकी सेवाएं कोई भी खरीद सकता है; क्योंकि उसके युद्ध-कौशल में किसी भी नीयत, किसी भी नीति, किसी भी आचार-विचार और किसी भी जन-कल्याण आदि के लिए जरा-सी भी जगह खाली नहीं होती है।
 
भाड़े का योद्धा अगर नीयत और नीति पर जरा-सा भी ध्यान दे देने की कोशिश-भर भी कर बैठे तो भूखों मर जाए। कोई भी कुशल कलाकार राजनीतिक-विचार की महंगाई के इस दौर में क्यों बेकार ही अपनी फजीहत करवाएगा? खरीदने वाले खरीद लेने के लिए कतारबद्ध खड़े हैं और मुंहमांगी कीमत भी दे रहे हैं तो यहां फिर प्रशांत किशोर चीज ही क्या है? प्रशांत किशोर की जगह अगर हरीशचन्द्रजी भी होते तो वे भी सहर्ष ही बिक जाते।
 
राजनीति सिर्फ खाला का घर ही नहीं रहा, अब तो वह मौसियों का मोहल्ला भी हो गया है। क्रिकेट हो या पार्टी-दफ्तर, सब मौसियों के मोहल्ले हो गए हैं। आम आदमी के नाम पर पार्टी बना ले जाने वाला तथाकथित 'आम आदमी' भी दिल्ली के आम आदमी को ही पानी पिला नहीं पाता है और 10 लाख लीटर पानी प्रतिदिन लातूर भेजने की शेखचिल्ली बघारता है। भाड़े के योद्धा की जय हो। 
 
प्रशांत किशोर भाड़े का योद्धा तो हैं ही, साथ में वे विभीषण भी कहे जा सकते हैं। वह इसलिए कि नरेन्द्र मोदी ने (भाजपा) वर्ष 2012 में गुजरात विधानसभा तथा फिर वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव के लिए प्रशांत किशोर को भाड़े पर लिया था। इससे जाहिर ये होता है कि प्रशांत किशोर भाजपा की आंतरिक कमजोरियां जानते हैं। उन्होंने भाजपा की उन्हीं कमजोरियों का फायदा बिहार चुनाव में नीतीश कुमार के लिए उठाया। अब वे उन्हीं कमजोरियों का फायदा उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के लिए उठा सकते हैं। 
 
वे बिहार में जद (यू) की कमजोरियां जान चुके हैं। अगर यूपी में जद (यू) आदि का कांग्रेस से कोई तालमेल संभव नहीं हो सका तो यह भाड़े का योद्धा भाजपा के साथ-साथ जद (यू) आदि की कमजोरियों का फायदा कांग्रेस के लिए उठाने से क्यों चूकेगा? 
 
सवाल यह है कि प्रशांत किशोर कांग्रेस के सदस्य नहीं हैं, ऐसे में उन्हें कांग्रेस पार्टी की अंदरुनी बैठकों में किस हैसियत से शामिल किया जा रहा है? सवाल यह भी है कि इस बात की क्या गारंटी हो सकती है कि प्रशांत किशोर जैसा भाड़े का योद्धा भविष्य में किसी भी कांग्रेस-विरोधी पार्टी के हाथों बिकेगा नहीं?
 
राजधानी दिल्ली के गुरुद्वारा रकाबगंज स्थित वॉर रूम में कांग्रेस पार्टी ने अपनी चुनावी रणनीति की तैयारी और उस पर अमल शुरू कर दिया है। उसी वॉर रूम में यह भाड़े का योद्धा भी अपनी टीम के करीब दर्जनभर वेतनभोगी कामगारों के साथ अपना तंबू तान लेता है। टीम के ये कामगार अपना-अपना लैपटॉप साथ लाते हैं। वॉर रूम में मौजूद किसी भी सिस्टम कम्प्यूटर आदि का कोई इस्तेमाल ये नहीं करते हैं किंतु फिर भी और बाहरी होते हुए भी कांग्रेस की भीतरी रणनीति का निर्धारण यह भाड़े का योद्धा ही करता है। 
 
प्रशांत किशोर की ही तरह एक योद्धा थे फ्रांस के जनरल समरू। ये योद्धा भाड़ा लेकर किसी के भी लिए लड़ जाने को तैयार रहते थे। न कोई नियम, न कोई नीति, न कोई सिद्धांत। जनरल समरू ने बाद में भारत में, दूसरों के लिए भाड़ा लेकर लड़ते हुए अपनी खुद की सेना बनाई थी। समरू की यह सेना अलग-अलग शासकों की अलग-अलग लड़ाइयों में लड़ती थी। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं था कि मराठे जीतें या मुगल?
 
क्या यह महज इत्तफाक है कि उत्तरप्रदेश के राज्यपाल-निवास के अतिथि-कक्ष में आज भी उसी जनरल समरू की बीवी का पोर्ट्रेट टंगा है? जनरल समरू ने बुढ़ापे में इस एक निम्न कुल की लड़की से अपनी देखभाल के लिए शादी की थी। समरू जल्द ही खुदा को प्यारा हो गया। उसके बाद उसकी विधवा बेगम ने ही मेरठ के पास स्थित सरधना की जागीर संभाली और अपनी भाड़े की सेना भी। वह भी भाड़े की सेना उपलब्ध करवाती थी। 
 
सन् 1707 में औरंगजेब की मौत और 1857 की क्रांति के बीच मुगलों की जगह लेने के लिए मराठा, अंग्रेज, फ्रेंच और पुर्तगाली ताकतें कई-कई रियासतों पर कब्जा करने के लिए लड़ रही थीं। भारत पर कब्जा करने को आतुर इन ताकतों के पास कोई नीति, नियम, नैतिकता या सिद्धांत आदि नहीं थे। 
 
आज भी दिल्ली की केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने के लिए यही सब हो रहा है और जनरल समरू की जगह प्रशांत किशोर सामने आ गए हैं। जनरल समरू भाड़ा लेकर लड़ते थे और प्रशांत किशोर भी भाड़ा लेकर लड़ते हैं। दोनों ही भाड़े के योद्धा होने की समानता का सम्मान रखते हैं। 
 
जिस तरह जनरल समरू को इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि मराठे जीतें या मुगल, ठीक उसी तरह से प्रशांत किशोर को भी इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि भाजपा जीते या कांग्रेस। भाड़े का योद्धा तो अपना भाड़ा लिया और ये चला। नेता और जनता और तमाम मीडिया जाए भाड़ में। सूरज अस्त मजूर मस्त। मिली दलाली खुली कलाली। किंतु याद रखा जा सकता है कि विलायत-पलट भाड़े का योद्धा कभी भी भारत का हित नहीं करता है। 
 
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