मां, आत्मीय मुस्कान, शीतल एहसास : वामा साहित्य मंच ने मनाया मदर्स डे

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वामा साहित्य मंच ने मनाया मदर्स डे 
 
मां, एक शब्द शहद की मिठास से भरा। मां, एक रिश्ता परिभाषाओं की परिधि से परे। मां, बेशुमार संघर्षों में अनायास खिल उठने वाली एक आत्मीय मुस्कान, एक शीतल एहसास। मां, न पहले किसी उपाधियों की मोहताज थीं, ना आज किसी कविता की मुखापेक्षी।
 
निरंतर देकर भी जो खाली नहीं होती, कुछ ना लेकर भी जो सदैव दाता बनी रहती है उस मां को इस एक दिवस पर क्या कहें और कितना कहें। यह एक दिवस उसकी महत्ता को मंडित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। हो भी नहीं सकता। हमारे जीवन के एक-एक पल-अनुपल पर जिसका अधिकार है उसके लिए मात्र 365 दिन भी कम है फिर एक दिवस क्यों?

 
लेकिन नहीं, यह दिवस मनाना जरूरी है। इसलिए कि यही इस जीवन का कठोर और कड़वा सच है कि मां इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा उपेक्षित और अकेली प्राणी है। कम से कम इस एक दिन तो उसे उतना समय दिया जाए जिसकी वह हकदार है। उसके अनगिनत उपकारों के बदले कुछ तो शब्द फूल झरे जाए. ..। कुछ इसी सोच के साथ वामा साहित्य मंच की सदस्यों ने मंगलवार को मदर्स डे मनाया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में उनके साथ मौजूद रहीं शहर की जानी मानी कलाकार डॉ. शुभा वैद्य। 
 
अतिथि उद्बोधन से पूर्व वामा साहित्य मंच की सदस्यों ने मां पर स्वरचित 4 पंक्तियां प्रस्तुत कीं। खूबसूरत पोस्टर बना कर लाई कुमुद मारू ने लिखा- मां मैं तेरे ख्यालों से निकलूं तो कहां जाऊं, तू मेरी सोच के हर रास्ते पर नजर आती है। सचिव ज्योति जैन ने अपनी अनुभूतियों को कुछ इस तरह से पिरोया कि- नज़र से बचाने को मां ने बांध दिए हाथ पैरों में काले धागे, वो नहीं जानती थी, ताकत कालले धागे में नहीं, खुद मां की अंगुलियों में है। अध्यक्ष पद्मा राजेन्द्र ने अपनी कविता कुछ यूं पढ़ीं कि- मां पूजा, मां करूणा, मां ममता, मां ज्ञान, मां आदर्शों का बंधन, मां रूप रस खान, मां ही आभा समाज की, मां ही युग का अभिमान, मां से मैं मां की ही मैं परछाई... उपाध्यक्ष रंजना फतेपुरकर की पंक्तियां थीं- मां देखा है हर सुबह तुम्हें तुलसी के चौरे पर मस्तक झुकाए हुए, मां तुम रोशन करती हो अंधेरों को चांद का दीपक जलाए हुए... सदस्या उर्मिला मेहता ने मां पर पंक्तियां रचीं कि - मां तुम्हारा ऋण है निश्चल, कहो कैसे मैं चुकाऊं, मित्र जैसी पालना को याद कर आंसू बहाऊं,बन गई हूं दादी,नानी, मन तो बच्चा ही रहा, मायके का अर्थ भी अब मर्म को छुने लगा... विनीता शर्मा की रचना थी- मेरे हर दुख दर्द की दवा है मेरी मां, मुसीबतों के समय मखमली ढाल है मेरी मां, अपनी चमड़ी के जूते बनाकर पहनाऊं वह भी कम है मां, इस जहां में तो क्या किसी भी जहां में तुमसा कोई नहीं है मां... 
 
मधु टांक ने अपनी रचना में कहा कि प्यार की परिभाषा है मां, जीने की अभिलाषा है मां, ह्रदय में जिसके सार छुपा, शब्दों में छिपी भाषा है मां... इंद्र धनुष की रंगत है मां, संतों की ही संगत है मां, देवी रूप बसा हो जिसमें, जमीं पर ऐसी जन्नत है मां... 
 
वंदना वर्मा ने लिखा- मुश्किल है कुछ शब्दों में बयां करना मां को, दुनिया की तपती दोपहर में अपने आंचल की छाया देती है मां...  
 
डॉ. शोभा ओम प्रजापति ने कविता पढ़ीं - ईश्वर की रचना के हम सब, पर मैं तेरा आधार हूं मां, बोध हुआ जब मुझे ज्ञान का, तुम मेरी प्रथम गुरु कहलाई मां, नहीं कोई दूजा मेरी नज़र में, गीता सा ज्ञान कराती मां, होऊं नहीं कृतघ्न कभी भी, मैं तुझ सी बन जाऊं मां... 
 
विद्यावती पाराशर ने लिखा- एक विक्षिप्त सी मां, कुछ माह की बच्ची को गोद में समेटे, स्तनपान करा रही थी, नजरे चपल सी चारों ओर  घुमा रही थी, क्योंकि नन्ही बच्ची बलात्कार की निशानी थीं.. बार-बार सिर घुमा कर मुस्कुरा रही थी, मानो कह रही हो, तुम मेरा क्या बिगाड़ सकते हो, मेरे पास मां है.. 
 
निरूपमा नागर की रची पंक्तियां थीं- मां, शुक्ल पक्ष की चांदनी तुम हमें देती रहीं, स्वयं कृष्ण पक्ष की चांदनी सी ढलती रही, चांदनी का यूं ढलते जाना क्यूं हम गवारा करें, अमावस्या की रात, जीवन में तुम्हारे कभी पग न धरे।

अंजू निगम ने कविता के जरिए प्रश्न रखा कि -मां की भी कोई जात है, क्या वे हिन्दू -मुसलमान है, मां तो बस मां है, उनके आशीष के बिना हमारी भी कहां पहचान है... 
 
स्मृति आदित्य ने मां पर यह पंक्तियां रचीं... 
 
उसकी केशर सुगंध मेरे रोम-रोम से प्रस्फुटित होती है 
मेरी सांस-सांस की हर महक उसकी आत्मा से उठती है
वह देहरी पर सजी रंगोली सा इंद्रधनुषी प्यार है 
मां, जिसकी बिंदी में समाया मेरा संपूर्ण श्रृंगार है... 
 
निधि जैन ने रचना सुनाई- वो तो मां है न वो उबार लेती है, मुश्किलों में सबको संभाल लेती है, गणित जिंदगी का या रिश्तों में नमक, जरा कम पड़े खुद को डाल देती है... 
 
इस संपूर्ण कार्यक्रम की जिम्मेदारी इस बार शारदा गुप्ता, चारूमित्रा नागर और मंजू मिश्रा की थी अत: संचालन का दायित्व शारदा गुप्ता ने निभाया, सरस्वती वंदना चारूमित्रा नागर ने प्रस्तुत की तथा आभार माना मंजू मिश्रा ने। 
 
इस अवसर पर जानी मानी कलाकार अतिथि डॉ. शुभा वैद्य ने कहा कि - आजकल बच्चों को एक ही मां दिखाई देती है जबकि पहले घर में दादी, ताई, काकी जैसी कई मां होती थीं। क्या आपको पता है कि मदर्स डे का प्रतीक एक फूल है बकुल जिसकी पंखुरिया कभी नहीं बिखरती ठीक उसी तरह मां होती है जो कभी भी किसी भी परिस्थिति में नहीं बिखरती।मां की प्रकृति भी ऐसी ही होती है।
 
 शुभा जी ने कहा कि मेरा बेटा असमय गया लेकिन वह मुझे मुस्कुराना सिखा गया। मुझे लगता है मेरा दुख मेरा है उससे मैं दूसरों को दुखी क्यों करूं, मदर्स डे का कॉमर्शियल रूप बुरा लगता है, हमें अपने बच्चों को यही संदेश देना है कि वह सबको अपनी मां मानें।

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