साहित्य बगिया निरंतर अपना प्रयोग कर रही है। इसी दिशा में बढ़ते हुए 10-06-2016 को साहित्यिक बगिया में व्यंग्य विधा पर डॉ. सुरेश कांत जी के व्यंग्य "मैं चुप रहूंगा", मोहन लाल मौर्य का "दो फीसदी मलाल", गिरीश पंकज जी का “जमीन से जुड़ा दबंग” संतोष त्रिवेदी का “बोर्ड की केंची और उड़ता पंजाब” अर्चना चतुर्वेदी का “दिल ही तो है अटक गया”, आरिफा एविस जी का "बोलो अच्छे दिन आ गए", डॉ. मोहन कुमार नागर का "सनाढ्य ब्राह्मण मेहतर चाहिए" और चर्चित लेखक सुशील सिद्धार्थ का "दिले नादां तुझे हुआ क्या है" के व्यंग्य लगाए गए।
साहित्यिक बगिया पर चर्चित नवनीत पांडे, दर्शिका तिवारी, चर्चित अनुवादक मणि मोहन मेहता जी, प्रकाश सिन्हा जी, ख्यात लेखिका शाहनाज इमरानी जी, व डॉ. मोहन कुमार नागर, कुंवर इन्द्र सेन जी, आकाश दीप भाई और पंकज कुमार वर्मा ने अपने विचार रखे।
प्रहलाद श्रीमाली जी ने सबसे पहले अपनी टिप्पणी रखते हुए कहा कि जाति के दंभ पाखंड पर मोहन कुमार नागर जी का करारा व्यंग्य जातिवाद को उसकी औकात दिखाता है। वहीं सुशील सिद्धार्थ जी का धारदार व्यंग्य दिले नादां के हवाले समाज और व्यवस्था में पनपती विसंगति विकृति पर प्रहार करते हुए जन चेतना का आवाह्न करता है।
नवनीत पांडे जी ने कहा कि “आरिफा जी, सुशील जी और मोहन जी के व्यंग्य बड़े मारक हैं और मोहन जी का व्यंग्य तो व्यंग्य कथा है जिसमें कथा सूत्र पकड़ उसका बहुत ही जानदार तरीके से निर्वाह किया गया है।”
पंकज वर्मा ने कहा कि “डॉ. मोहन नागर का व्यंग्य आज के समाज में जातिवाद कायम है यह साफ देखा जा सकता है उनके व्यंग्य मन में कई अनसुलझे सवालों के सत्य को उजागर करता है। सुशील भाई का भाषा का कहना और तीखी जबांदानी आज के परिवेश पर समाज की आम समस्याओं को बहुत सलीके से रखती है।”
कुंवर इन्द्रसेन जी ने कहा कि "दोनों ही रचना अबाध रूप से श्रेष्ठ हैं किंतु नागर जी की रचना में अगर मुंशी जी की झलक है, तो सुशील जी में कुछ काशीनाथ जी का अंश देखने को मिला। लेकिन जहां नागर जी की रचना विषय को समाप्त करती हुई प्रतीत हो रही है"।
आकाश दीप ने आरिफा जी के व्यंग्य पर बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि "आरिफा जी ने काफी सूक्ष्म दृष्टि से वर्तमान राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक विद्रुपताओं को उकेरा है".. इसमें उन्होंने दो साल से सर्वाधिक चर्चित समसामयिक राजनीतिक कार्यक्रमों की गहन समीक्षा व पड़ताल भी की है... व राजनीति के तहत प्रभावित आम व्यक्ति के जीवन गत कार्यव्यापार पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पड़ने वाले प्रभावों को... उससे उत्पन्न व्यक्ति की खीझ, उसके आक्रोश को वाणी दी है, शब्दबद्ध किया है, बिल्कुल जनसाधारण की भाषा में पिरो दिया है...अद्भुत लिखा है। काफी बेबाक ढंग से कई हास्य व्यंग्य प्रयोग किए हैं...नए तो नहीं हैं...पर कहने के ढंग की वजह से बेजोड़ हैं। वर्तमान सरकार के तथा पूर्व की सरकार के कार्य की नीतिगत समानता पर, तमाम चुनावी खोखले वादों पर तथा जनता के साथ निरंतर किए जा रहे विश्वासघातों पर तथा सरकार के राजनैतिक, आर्थिक एजेंडा पर सशक्त व्यंग्य है...जिसमें दो साल के भीतर के हवाई विकास का खाका लोगों को दिखाया है... कई सत्तागत साजिशों पर से ईमानदारी से पर्दा उठाकर जनसामान्य को जागरूक करने का काम किया गया है।”
डॉ. मोहन कुमार नागर ने सुशील सिद्धार्थ जी के व्यंग्य पर कहा कि इनके व्यंग्य का पात्र खुद से बात कर रहा है...ये व्यक्तिगत वार्तालाप... बैचेनी बड़ी बड़बड़ाहट में रोजमर्रा की तकलीफें नज़र आती हैं जो व्यंग्य की सफलता है।"
"साहित्यिक बगिया" मंच के संचालक व व्यवस्थापक, विमल चन्द्राकर जी ने सभी व्यंग्यकारों पर सम्यक विचार रखे। आरिफा जी के व्यंग्य में आज की सरकार की विफलता को साधते हुए कहा- कि "आज के वर्तमान परिवेश में आरिफ जी का व्यंग्य वर्तमान सरकार की उपलब्धियों व अनुपलब्धियों दोनों के बाबत करारी चुटकी कसता है।"
"मैं चुप रहूंगा" के माध्यम से डॉ. सुरेश कांत ने आज की सरकार की असफलता पर करारी चुटकी ली है। दो फीसदी मलाल आज की ध्वस्त प्रायः शिक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान बनाती है, जिनका समाधान न तो पिछली सरकार के पास मिला और न ही वर्तमान सरकार के पास कोई विकल्प दिखता है।
“आरिफा जी के व्यंग्य में पिछली सरकारों और वर्तमान सरकारों के कार्यकाल के दौरान आम जनता के पिसे खाने को लेकर जो तस्वीर तेरह साल के आकड़ों पर गहरा अन्वेषण जारी किया गया है वह देखते बनता है। बढ़ते उत्पादों की कीमतें, कर, ई पी ऐ ब्याज दर और कंपनी की गिरती साख पर आरिफा जी ने आज के संदर्भ को देखते हुए गहरी पड़ताल जारी की है।
ईधन, पेट्रोल, रसोई गैस के बढ़ते दाम, सोना चांदी दोनों की क्रमिक बढ़ती कीमतों को नियंत्रण न कर पाने में क्या पिछली सरकार और क्या अगली सरकार सब के सब ध्वस्त होते दिखते हैं। मुद्रा का अवमूल्यन उस पर कंपनियों की गिरती साख किसी से छुपी नहीं।
भुखमरी अकाल, गरीबी, पल-पल बढ़ती आत्महत्या, बेरोजगारी के बढ़ते ग्राफ पर क्या पिछली और आज की वर्तमान सरकार का नियंत्रण हो सका है। हर ओर देश के काबिल नेता, महानायक, अर्थशास्त्री सब अक्षम से दिखते है। केवल कागजी आंकड़ों का दुरूस्त जारी है, जो कि मन को दुखित करता है और देश के विकास को एकदा स्थिर सा करता जाता है। आलेख हम सबको एकदा पुनः चिंतन की आवश्यकता अनुभूत करता है।
डॉ. नागर जी आगे लिखते हैं आरिफा जी .. अद्भुत खांटी व्यंग्य। मैं साधिकार इस व्यंग्य के लिए कहना चाहूंगा कि ये व्यंग्य यदि परसाई जी या शरद जी पढ़ते तो आपकी पीठ जरुर ठोकते कि बेहतरीन लिखा। साथ ही अब एक आलोचना भी ...ये व्यंग्य अभी खत्म नहीं हुआ। बहुत कुछ संभावना अब भी छूट रही है जो शायद आप जानते हैं या इसे पाठक द्रष्टि से पढ़कर मानें कि ये आपके सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य में हो सकता है यदि इसकी धार और पैनी हो । अभी ये पाठक को तिलमिला नहीं रहा ... इसे जारी करें आगे भी।
प्रकाश सिन्हा जी लिखते हैं, आरिफा जी की व्यंग्य रचना 'अच्छे दिन आ गए' पढ़ी। चुटीला व्यंग्य है। कुछ-कुछ हरिशंकर परसाई की कक्षा वाली लगती है। वर्तमान सरकार पर बढ़िया कटाक्ष है। व्यंग्य ऐसा ही होना चाहिए। डॉ. मोहन नागर का व्यंग्य आज के समाज में जातिवाद किस हद तक स्थान आज में रखे है साफ देखा जा सकता है। उनके व्यंग्य मन में कई अनसुलझे सवालों के सत्य को उजागर करता है। सुशील जी का भाषा का कहना और तीखी जबांदानी आज के परिवेश पर समाज की आम समस्याओं को बहुत सलीके से रखती है। आरिफा जी के व्यंग्य से वर्तमान सरकार की आज की असफलता साफ तौर पर जाहिर होती है।
इसी प्रकार डॉ मोहन कुमार नागर व सुशील सिद्धार्थ जी के लेख पर भी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि आज के परिवेश में जातिवाद शने: शनेः कमतर ही होता चला जा रहा है। किंतु आज भी कुछ कुलीन वर्णाधिपति स्वयं को कुलश्रेष्ठ समझने के फेर में ऐसी निकृष्ट सोच पाले हुए हैं। वे परंपरा संस्कार का बोझ लादे देखे जा सकते हैं। कहा जा सकता है जिसके कारण जातिवाद कम तो हुआ है किंतु समूल रूप से मिटाने के लिए नागर साहब ने इस व्यंग्य को बड़ी खूबसूरती से उच्च वर्ग के लिए संभ्रांत सनाढ्य ब्राह्मण परिवार को केंद्र बिंदु में रखकर संपूर्ण समाज पर सटीक निशाना साधा है। लाख मारपीट के बाद भी उनका पुत्र एक निम्न वर्गीय चमार जाति के दलित मित्र से पक्की दोस्ती कर बैठता है। मित्र की उपेक्षा के बाद मारे-पीटे जाने के बाद भी वो अपने पिता की एक बात न सुनता है और स्वयं को प्रत्येक कर्म से अलग करता है। ना वह बुनकर के बुने कपड़े पहनता है ना चर्मकार के बनाए जूते पहनता है और ना ही नाई से बाल कटवाता है। आगे वह एक ईसाई गुरू से पढ़ना तक बंद कार्य देता है।आज के परिवेश की ओंछी मानसिकता पर कुठाराघात करते उम्दा व स्तरीय व्यंग्य है।
“दूसरा व्यंग्य दिल ए नादान तुझे हुआ क्या है। आज के परिवेश पर सामाजिक विद्रूपता अपराधीकरण पर सुशील जी के भाषायी कटाक्ष देखते बनते हैं। चुनावों में राजनैतिक उठापटक, परस्पर विरोधी राजनैतिक घटिया ओछी चालें, प्रतिद्वंदिता के चलते प्रत्याशी बेटे का बलात्कार करना, पुत्र मोह में माता का अखंड पाठ और अपराध करने के बाद भी रूपयों के बल पर बेटे को छुड़ाने का घटनाक्रम पाने के पानी की किल्लत, पुलिस का रहीं के आगे नतमस्तक होना, डाक्टर की झूठी रपट, शरीर के सही सलामत परिसर भी अंग भंग कर डालना, पुलिस वालों का निरपराध को बेजा ही एनकाऊंटर करके मारना....और तब इस सबके बावजूद विधिवत पूजा अर्चना की बात देखकर कोफ्त हो उठता है।
सुशील सिद्धार्थ जी की खरी जुबानी बेहद तल्ख अंदाज में आज के समाज, उसमें रची बसी घिनौनी मानसिकता से सजी आदमीयत सापेक्ष करारा व्यंग्य करती है।
कुशल लेखन समाज के प्रति मानवीय जिम्मेदारी और कर्तव्य को निभाने की ओर चिंतन करने को विवश करती है। आज मंच पर साहित्यिक बगिया में व्यंग्य पर जितने भी विचार मिले उनसे निश्चित रूप से आज के समाज के हालातों संदर्भों को समझने में हम सबको सहायता मिलेगी। साहित्यिक बगिया के सभी टिप्पणीकार ऐसे ही साहित्यिक बगिया पर अपने विचारों से साहित्यिक को संपोषित करें ताकि नवोदित लेखकों के लिए यह मंच और बेहतर काम कर सके।आप सभी को व्यंग्य जैसी विधा पर सफल व कारगर संवाद हेतु पुनः धन्यवाद के देता हूं।