13 फरवरी : रेडियो ने दी, गर्माहट अपनेपन की

Webdunia
प्रीति सोनी
13 फरवरी, विश्व रेडि‍यो दिवस है। रेडियो, शब्द बोलते-सुनते ही याद आता है दिनभर चह‍कता, बजता, गुनगुनाता और दुनिया भर के समाचार सुनाता एक काले या भूरे रंग का डिब्बा जो बचपन के दिनों में घर का एक अहम सदस्य हुआ करता था।



सुबह की शुरूआत भगवान का नाम और रेडियो के समाचार सुनकर ही हुआ करती थी। घर में रहने वाली महिलाएं हों या चौराहे की किसी दुकान पर लोगों का मजमा, हर कोई रेडियो के कार्यक्रमों पर कान लगाए रहता। और इस रेडियो ने भी तो कभी किसी में भेदभाव नहीं किया ! खेत-खलिहान में काम कर रहे अकेले किसान तक को अपनी आवाज देकर साथ होने का एहसास कराया, तो शहरों से लेकर गांवों तक सभी फरमाइशों का पूरा ध्यान रख रिश्ता निभाया। घर-बार और अपनों को छोड़ देश की सीमा पर तैनात सैनिकाें के लिए रेडियो हमेशा एक बड़ा सहारा रहा
 
होली पर- होली के दिन दिल खि‍ल जाते हैं, रंगों में रंगा मिल जाते हैं.....राखी पर- भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना, भैया मेरे छोटी बहन को ना रुलाना जैसे गीतों के जरिए उत्साह को दुगुना किया, तो 26 जनवरी और 15 अगस्त पर राष्ट्रपति की बात हम तक पहुंचाकर, ऐ मेरे वतन के लोगों...जरा आंख में भर लो पानी जैसे गीतों से देशभक्ति का जज्बा हर भारतवासी के मन में जगाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
 
जब कभी त्योहार मने, रेडियो ने हमारी खुशि‍यां दुगुनी की। और जब कभी देश आपातकाल या बुरे वक्त से गुजरा, तो सही जानकारियां उपलब्ध कराते हुए हमें सांत्वना देने वाला भी रेडियो ही तो था। सुबह के 6 बजे से रात को सोने तक दिनभर हर अच्छे और बुरे वक्त का साथी रहा यह रेडियो, और आज भी है। हमारी सुबह को शुभ बनाने के लिए न जाने कितनी ही तैयारियां करता है यह रेडियो। और बिल्कुल ठीक समय पर पहुंच जाता है अपनी मधुर आवाज के साथ। रेडियो और हमारे बीच भावनात्मक जुड़ाव तो रहा ही, समय का अनुशासन भी ऐसा रहा कि रेडि‍यो के कार्यक्रमों से समय का सही पता चलता था।
 
वक्त धीरे-धीरे बदलता रहा और रेडि‍यो ने विविध भारती से लेकर एफएम तक का सफर तय किया। समय के साथ हम भी बदलते रहे, लेकिन पुराने काले रंग के गोल बटन वाले रेडि‍यो से जुड़ाव कम नहीं हुआ। भले ही मोबाइल फोन में एफएम, रेडियो की सुविधा आ गई हो, लेकिन वो पुराना रेडियो जिसमें कई यादें सिमटी हुई हैं, अब तक संभाले रखा है।

अब एफएम की चहचहाहट में अपनेपन की गर्माहट महसूस नहीं होती...और ना ही पुराने रेडियो की तरह यह हमारी जरूरतों का पूरा ख्याल रखता है। भले ही यह एफएम चलते फिरते कहीं भी सुना जा सके, लेकिन यह शहरों और गांवों में फर्क करना जानता है। शहर की सड़कों पर गूंजती यह आवाजें, शहर की सीमा छोड़ते ही साथ भी छोड़ देती हैं, और हमारा अपना रेडियो, साथ देता है अपनों सा... आखरी कोने तक भी....।
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