बारह महीनों को छः ऋतुओं में बाँटा गया है जिसमें प्रीति पूर्वक परस्पर सहसंबंध स्थापित करने के लिए प्रत्येक जीव-जंतु के लिए भिन्न-भिन्न ऋतुएँ होती हैं लेकिन मनुष्य के लिए ऋषियों ने वसंत ऋतु को ही सर्वाधिक उपयुक्त मानकर वसंत पंचमी के दिन इसके स्वागत का उत्सव मनाने का भी संकेत दिया है।
जाड़े की ठिठुरन कम होने के बाद सूर्य के उत्तरायण होते ही वसंत ऋतु के दो महीने प्रकृति नई अँगड़ाई के संकेत देने लगती है। पतझड़ के बाद जहाँ पेड़-पौधों में बहार आने लगती है, वहीं मानव के प्रेमी हृदय में खुमार की मस्ती छाने लगती है। आम के पेड़ों में बौर फूटने लगती है, कलियाँ धीरे-धीरे खिलती हुई मधुर मधु के प्यासे भौरों को आकृष्ट करने लगती हैं।
ऐसे में कामदेव अपने पुष्प रूपी पलाश आदि पाँचों बाणों को तरकश से निकाल मानव के दिलो-दिमाग में बेधने लगता है। इसलिए वसंत को मदनोत्सव के रूप में रति एवं कामदेव की उपासना का पर्व कहा गया है। इसलिए वसंत पंचमी पर सरस्वती उपासना के साथ-साथ कामदेव की उपासना के गीत भी भारत की लोक शैलियों में आज भी विद्यमान हैं।
इसके विपरीत शहरों में रहने वाले लोग इसके महत्व को भूलते जा रहे हैं। अतः इस पर्व को भावनात्मक रूप से समझकर अतीत के साथ वर्तमान का सेतु बनाने की इस समय नितान्त आवश्यकता है। ताकि भारत की प्रीति की प्राचीन रीति आधुनिक पाश्चात्य उछल-कूद की आँधियों में धूमिल न हो जाए।