शरद : एक मनोहारी ऋतु

फिर छिड़ी बात रात फूलों की...

Webdunia
विश्वनाथ त्रिपाठी
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शरद की बिदाई हो गई लेकिन कितनी खामोशी से। शरद उत्तर भारत की सबसे मनोहर ऋतु है। इसमें आकाश निर्मल हो जाता है। नदियों का जल (आज भी) स्वच्छ हो जाता है। रेल से यात्रा करें तो रेलवे लाइन से लगे-सटे गड्डों पोखरों में कुमुदिनी खिली हुए दिखलाई पड़ेंगी। खिलती रात में हैं लेकिन दिन में दस-ग्यारह बजे तक खिली रहती हैं। इसी ऋतु में हारसिंगार खिलता है। निराला ने लिखा है, 'झरते हैं चुंबन गगन के।'

सबसे विशिष्ट शरदकालीन वातावरण का रोमांचक स्पर्श होता है। अब आप से पूछूं कि आपको समकालीन कवियों की लिखी हुई कोई कविता (जाहिर है आपको अच्छी ही कविता याद आएगी) शरद के सौंदर्य पर याद आ रही है, अगर ऐसी कोई दुर्लभ कविता खोजने पर मिल भी जाए तो वह दुर्लभ ही होगी। क्या नए कवियों को शरद का सौंदर्य प्रभावित नहीं करता?

क्या समकालीन कविता ने आस-पास के जीवन जगत को सहज मन से देखना बंद कर दिया है? रीतिकाल को हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए बहुत अच्छा काल नहीं माना जाता। कहते हैं कि वो दरबारी काल था। फिर भी उस काल के सहृदय कवि सेनापति ने लिखा है-

कातिक की रात थोरी-थोरी सिहरात,
सेनापति को सुहात सुखी जीवन के गन हैं
फूली है कुमुद फूली मालती सघन बन
मानहुं जगत छीर सागर मगन है

( पंक्तियां स्मृति से लिख रहा हूँ)

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हमारे समय के प्रसिद्ध चिंतक और साहित्य विचारक विजयदेव नारायण साही ने वृंदावन पर लिखी रीतिकालीन कवि की एक कविता की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि प्रकृति सौंदर्य की ऐसी कविता लिख पाना मेरी महत्वाकांक्षा ही हो सकती है। कहा जा सकता है कि दिल्ली जैसे महानगर में रहते वाले कवियों के लिए कमल और कुमुद की बात करना अप्रासंगिक है।

बेशक अब कमल और कुमुदिनी नगरों में दिखलाई नहीं पड़ते। दिखलाई पड़े तो पहचाने भी नहीं जा पाएँगे। लेकिन बात सिर्फ कमल और कुमुद के नहीं है, अपने परिवेश में घिरे सौंदर्य को देखकर सहज प्रभावित होने की है। पिछले वर्षों में दिल्ली पहले की अपेक्षा अधिक हरी-भरी हो गई है। शरद ऋतु दिल्ली में देखी-पहचानी और महसूस की जा सकती है।

दिल्ली के अनेक हिस्से फूलों से शरद और वसंत में जगमगा उठते हैं। बरसात के बाद वनस्पतियाँ निखर उठती हैं। इस बार मुझे आश्चर्य हुआ जब मैंने दिलशाद गार्डन में कोयल को पागलों की तरह कूकते सुना। पहले तो मुझे भ्रम हुआ कि कोई लड़का शरारत करके कोयल की आवाज की नकल कर रहा है लेकिन मैंने खुद अपनी आँखों से कोयल को मुँह खोलकर लगातार बड़ी देर तक कुहकते सुना।

कहीं ऐसा तो नहीं कि आस-पास के सौंदर्य से विरत होकर जीवन की निराशा, आत्म-भर्त्सना, भ्रष्टाचार, विडंबना, विसंगति पर ही लिखना समकालीन कविता की रूढ़ि बन गई है क्योंकि यह मानना मुश्किल है कि महानगरीय जीवन से भी सहजता और सौंदर्य गायब हो चुके हैं।

गायब हो जाने की आशंका और उससे निराशा एक बात है। जो वास्तविक है और उसकी अभिव्यक्ति करना कविता का ऐतिहासिक उत्तरदायित्व है। किंतु वस्तु और रूप की विविधता कविता की जीवंतता, जीवनवादिता और जनतांत्रिकता की पहचान है।

समकालीन कविता और अन्य साहित्यरूपों को भी देखकर कभी-कभी आशंका उठती है कि क्या समकालीन रचनाधर्मिता अपने परिवेश के सौंदर्य की उपेक्षा की रूढ़ि बना चुकी है। मुझे कविता तो नहीं लेकिन गद्य में कभी-कभी प्रयाग शुक्ल के लेखन में जरूर प्रकृति सौंदर्य और रोजमर्रा की सामान्य स्थितियों में इधर-उधर झाँकती हुई सहज और सुंदर स्थितियाँ झलक मारती दिखलाई पड़ती हैं।

कुछ दिन पहले नीम की कोंपलों पर लिखा हुआ उनका एक सुंदर गद्य-प्रबंध पढ़ने को मिला था। प्रयाग शुक्ल को मानुस-गंध कम भाती है। नीम के कोंपले से केदारनाथ सिंह की 'पाकड़ में पात नए आ गए' और 'झरने लगे नीम के पत्ते' का बिंब दृश्य हो उठा।

रघुवीर सहाय ने पानी के विविध रूपों पर अभूतपूर्व पंक्तियाँ रची हैं और उनकी एक पंक्ति तो मुझे रह-रह याद आ रही है -'मैंने नहीं सोचा था कि दृश्यालेख इतना सुंदर हो सकता है।' मैं यहाँ जानबूझकर प्रगतिशील कवियों नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, भवानी प्रसाद मिश्र की कालजयी कविता पंक्तियों को उद्धृत नहीं करना चाहता क्योंकि उन्हें उद्धृत करके उन पर बात करने के लोभ का संवरण करना मुश्किल हो जाएगा और उसमें देर लग जाएगी।

समकालीन कवियों में मैंने नवल शुक्ल की एक कविता 'फूल खिले-खिले फूल' जरूर ऐसी पढ़ी जो फूलों की ऋतु के उल्लास को कविता के द्वारा पाठक के मन में उतार देती है। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के बैंक में एक काम से गया था। बैंक के पास पहुंचा तो दस-ग्यारह साल के एक लड़के ने मेरे सामने आकर कहना शुरू किया-'ऐसी हो बारिश कि खूब फूल खिलें, खिलें फूल" ये मैंने पढ़ा है। बात ये थी कि मैंने एक किताब में इस कविता को उद्धृत किया है। लड़के ने सोचा कि ये कविता मैंने ही लिखी है।

फूलों की बात करते समय आपको 'बाजार' फिल्म में तलत अजीज की गाई हुई मखदूम की ये पंक्तियां न याद आएं ये कैसे संभव है-'फिर छिड़ी बात रात फूलों की..., रात है या बारात फूलों की।' काश! हिंदी के कवि मेरा मतलब समकालीन प्रतिभाशाली कवियों से है, फूल, पत्ती, नदी, जल के सौंदर्य को सुगठित वाक्यों और छंद विधान में बांध पाते। यह आलोचकीय अतिक्रमण नहीं, पाठकीय रुचि का अनुरोध है।

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