इस बार नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले

गीतकार प्रसून जोशी की कविता और प्रेरित कलाकृति

रवींद्र व्यास
Ravindra Vyas
WD
प्रसून जोशी बॉलीवुड में गीतकार के रूप में खासे लोकप्रिय हो गए हैं। उनके गीतों में कविता है। उन्होंने अपने बेहतरीन गीतों से यह बखूबी जता दिया है कि वे किसी भी चालू मुहावरे और किसी भी तरह की फूहड़ता का सहारा नहीं लेंगे। उनके तमाम गीत इस बात के सुरीले गवाह हैं। रंग दे बसंती और तारे जमीं पर के गीतों ने उन्हें शीर्ष पर बैठा दिया है। फिल्म दिल्ली-6 के गीत भी खूब सराहे गए।

लेकिन वे कविताएँ भी लिखते हैं। हाल ही में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा भी है कि वे जल्द ही अपनी कविताओं का एक संग्रह लाना चाहते हैं। इस बार संगत में उनकी एक कविता चुनी गई है। यह कविता उन्होंने मुंबई बम ब्लॉस्ट के बाद लिखी थी। यह बहुत कम लोगों तक पहुँची।

इसमें उन्होंने बहुत पीड़ा के साथ एक बच्ची के साथ अपने अनुभव को मार्मिक भाषा में अभिव्यक्त किया है। वस्तुतः यह कविता अपने घावों को देखने का एक साहस पैदा करती है और यह बताने की कोशिश करती है कि हमें अपनी पीड़ा को देर तक देखते रहना, महसूस करते रहना और उसे समझ कर कुछ सार्थक तय करना है।

इस कविता की खूबी यह है कि यह बम ब्लॉस्ट जैसे विषय पर तो लिखी गई है लेकिन इसमें किसी भी तरह की नारेबाजी से बचा गया है, किसी भी तरह की नकली क्रांतिकारिता से बचा गया है। यह कविता किसी भी तरह की उत्तेजना में अपनी ताकत जाया नहीं करती बल्कि एक बहुत ही मानीखेज मानवीय कर्म में विश्वास करती और कराती है। कुछ कुछ प्रेरणा देती हुई। इस कविता का शीर्षक है-इस बार नहीं। इसकी शुरुआत इन पंक्तियों से होती है-

इस बार जब छोटी सी बच्ची मेरे पास अपन ी
खरोंच लेकर आएग ी
मैं उसे फू फू कर नहीं भुलाऊँग ा
पनपने दूँगा उसकी टीस क ो
इस बार नही ं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँग ा
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाल े
दर्द को रिसने दूँगा, उतरने दूँगा अंदर गहर े

इन पंक्तियों में प्रसून जोशी बिना किसी लाग-लपेट के एक छोटे से अनुभव से बड़ी बात कहने की कोशिश करते हैं और यह बताते हैं कि पहले हमें अपने घावों को देखना है, उनसे न आँखें मूंदना है और न फाहे रखना है। इसकी टीस को महसूस करना और सबको खुले नंगे घाव देखने की ताकत और साहस पैदा करना है। अक्सर हम अपने घावों को देखने का साहस नहीं जुटा पाते। हम उससे नजरें चुराने और अपने को भुलावे में रखने की कोशिश करते हैं। इसीलिए वे आगे लिखते हैं -

इस बार मैं न मरहम लगाऊँग ा
ना ही उठाऊँगा रूई के फाह े
और ना ही कहूँगा कि तुम आँखें बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगा देता हू ँ
देखने दूँगा सबको हम सबको खुले नंगे घा व
इस बार नही ं

इस बार जब उलझनें देखूँगा, छटपटाहट देखूँग ा
नहीं दौडूँगा उलझी डोर लपेटन े
उलझने दूँगा जब तक उलझ सक े
इस बार नही ं

यह एक बेहतर तरीका है चीजों को पकने तक पहुँचाने का। कोई मसीहाई, मागदर्शन देने या नेतागिरी करने का कोई इरादा नहीं। बस एक अनुभव को एक स्थिति को अपने में रहने देने का ताकि वह पक सके, सह सके, महसूस कर सके। क्योंकि पकने और सहने के बाद ही कुछ बेहतर हासिल हो सकता है। आगे की पंक्तियों में किसी भी भाषणबाजी से भी बचा गया है। बचने का कहा भी गया है। कोई नकली मुद्रा नहीं, कोई मिसाल बनने की कोशिश नहीं।

इस बार कर्म का हवाला देक र
नहीं उठाऊँगा कोई औजा र
नहीं करूँगा फिर से एक नई शुरुआ त
नहीं बनूँगा एक मिसाल कर्मयोगी क ी
नहीं आने दूँगा जिंदगी को आसानी से पटरी प े
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों प े
न ही सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खू न
हलका नहीं पड़ने दूँगा उसका रं ग

जाहिर है यह बम ब्लॉस्ट जैसे भयानक स्थितियों में स्वार्थी हो जाती और रोटी सेंकने की प्रवृत्ति पर तीखा व्यंग्य भी है और उसका पर्दाफाश करने की एक बारीक काव्यात्मक कोशिश भी। उत्तेजना नहीं, बल्कि एक ठंडे संयम और विवेक से कवि काम ले रहा है। यही वह सबसे चाहता भी है। न मिसाल बनने की उतावली या हड़बड़ी, न ही मशाल उठा लेने की कोई जल्दबाजी। बस अपने इस अनुभव को ज्यादा बेहतर ढंग से समझने की कोशिश। और इसके बाद यह कविता एक अर्थगर्भित संदेश में अपने को बदलती हुई उत्कर्ष हासिल करती है-

इस बार घावों को देखना ह ै
गौर स े
थोड़ा लंबे वक्त त क
कुछ फैसल े
और उसके बाद हौसल े
कहीं तो शुरूआत करनी होगी
इस बार यही तय किया है।

जाहिर है यह एक व्यक्तिगत अनुभव ज्यादा बड़ा संदेश देता है। यह अपने ही घावों को देखने का हौसला देता है। और कुछ फैसले लेने का भी और एक नई शुरूआत करने का भी। और जब ज्यादातर लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में अक्सर यथास्थितिवादी बने रहते हैं यह कविता बताती है कि यह वक्त कुछ तय करने का है। कुछ ऐसा तय करने का ‍कि लोग नंगे घावों को देख सकें और हौसला पैदा कर नई शुरूआत कर सकें। ताकि समूची मानवता के लिए कुछ सार्थक काम किए जा सकें। बिना चिल्लाए, बिना उत्तेजित हुए....अपने लिए...अपने लोगों के लिए...अपने राष्ट्र के लिए... और अंततः इस पूरी दुनिया के लिए...!

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