धुँध से उठती धुन

संगत में इस बार निर्मल वर्मा के गद्य पर बनी पेंटिंग

रवींद्र व्यास
Ravindra VyasWD
हिन्दी के अप्रतिम गद्यकार निर्मल वर्मा के लेखन में एक विरल धुन हमेशा सुनी जा सकती है। वह कभी मन के भीतर के अँधेरे-उजाले कोनों से उठती है, किसी शाम के धुँधलाए साए से उठती है या फिर आत्मा पर छाए किसी अवसाद या दुःख के कोहरे से लिपटी सुनाई देती है।


  हिन्दी के अप्रतिम गद्यकार निर्मल वर्मा के लेखन में एक विरल धुन हमेशा सुनी जा सकती है। वह कभी मन के भीतर के अँधेरे-उजाले कोनों से उठती है, किसी शाम के धुँधलाए साए से उठती है या फिर आत्मा पर छाए किसी अवसाद या दुःख के कोहरे से लिपटी सुनाई देती है।       
वे शायद हमेशा अपने जीवन में इसी धुन को पकड़ने की कोशिश करते रहे। यहाँ उनकी इसी धुन को मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ जो उन्होंने भोपाल में रहते हुए किसी शाम तालाब किनारे पानी को हिलते हुए, पहाड़ी को देखते हुए और अपने मन में अजीब तरह से घुलते महसूस की होगी और उसे अपने बेहद नाजुक और मारक शब्दों में पकड़ने को कोशिश की होगी।

उनकी इसी धुँध से उठती धुन पर मेरी एक पेंटिंग भी प्रस्तुत है। तो पढ़िए निर्मलजी की डायरी का यह अंश। अपनी सुविधा के लिए मैंने इसका शीर्षक दे दिया है जो कि उनकी एक किताब का शीर्षक भी है।

सितंबर की शाम, बड़ा तालाब

देखकर दुःख होता है कि देखा हुआ व्यक्त कर पाना, डायरी में दर्ज कर पाना कितना गरीबी का काम है, कैसे व्यक्त कर सकते हो, उस आँख भेदती गुलाबी को जो बारिश के बाद ऊपर से नीचे उतर आती है, एक सुर्ख सुलगती लपट जिसके जलने में किसी तरह की हिंसात्मकता नहीं, सिर्फ भीतर तक खिंचा, खुरचा हुआ आत्मलिप्त रंग, तालाब को वह बाँटता है, एक छोर बिलकुल स्याह नीला, दूसरा लहुलूहान और शहर का आबाद हिस्सा तटस्थ दर्शक की तरह खामोश सूर्यास्त की इस लीला को देखता है।


पाट का पानी भी सपाट स्लेट है-वहाँ कोई हलचल नहीं-जैसे रंग का न होना भी हवा का न होना है, लेकिन यह भ्रम है, सच में यह हिलता हुआ तालाब है, एक अदृश्य गुनगुनी हवा में काँपता हुआ और पानी की सतह पर खिंचते बल एक बूढ़े डंगर की याद दिलाते हैं जो बार-बार अपनी त्वचा को हिलाता है और एक झुर्री दूसरी झुर्री की तरफ भागती है, काली खाल पर दौड़ती सुर्ख सलवटें जो न कभी नदी में दिखाई देती हैं न उफनते सागर में हालाँकि इस घड़ी यह तालाब दोनों से नदी के प्रवाह और सागर की मस्ती को उधार में ले लेता है


  यहाँ उनकी इसी धुन को मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ जो उन्होंने भोपाल में रहते हुए किसी शाम तालाब किनारे पानी को हिलते हुए, पहाड़ी को देखते हुए और अपने मन में अजीब तरह से घुलते महसूस की होगी और उसे अपने बेहद नाजुक और मारक शब्दों में पकड़ने को कोशिश की होगी।      
लेकिन रहता है तालाब ही, सूर्यास्त के नीचे डूबी झील। मैं घंटों उसे देखते हुए चल सकता हूँ, एक नशे की झोंक में औऱ तब अचानक बोध होता है- अँधेरा, गाढ़ा, गूढ़ मध्यप्रदेशीय अंधकार जिसमें पलक मारते ही सब रंग आतिशबाजी की फुलझड़ी की तरह गायब हो जाते हैं और फिर कुछ भी नहीं रहता, सब तमाशा खत्म। रह जाती है एक ठंडी, शांत झील, उस पर असंख्य तारे और उनके जैसे ही मिनिएचरी अनुरूप पहाड़ी पर उड़ते चमकते धब्बे-भोपाल के जुगनूँ।


लेकिन यह डायरी तीन दिन बाद की है, कैसे हम उन्हें खो देते हैं जो एक शाम इतना जीवन्त, स्पंदनशील, मांसल अनुभव था-इज इट दि मिस्ट्री ऑफ पासिंग टाइम आर दि ट्रुथ ऑफ इटर्नल डाइंग?

Show comments

गर्भवती महिलाओं को क्यों नहीं खाना चाहिए बैंगन? जानिए क्या कहता है आयुर्वेद

हल्दी वाला दूध या इसका पानी, क्या पीना है ज्यादा फायदेमंद?

ज़रा में फूल जाती है सांस? डाइट में शामिल ये 5 हेल्दी फूड

गर्मियों में तरबूज या खरबूजा क्या खाना है ज्यादा फायदेमंद?

पीरियड्स से 1 हफ्ते पहले डाइट में शामिल करें ये हेल्दी फूड, मुश्किल दिनों से मिलेगी राहत

चार चरणों के मतदान में उभरी प्रवृत्तियां काफी संकेत दे रही है

ऑफिस में बैठे-बैठे बढ़ने लगा है वजन?

Negative Thinking: नकारात्मक सोचने की आदत शरीर में पैदा करती है ये 5 बीमारियां

नॉर्मल डिलीवरी के लिए प्रेगनेंसी में करें ये 4 एक्सरसाइज