माँ पर नहीं लिख सकता कविता

संगत में ख्यात कवि चंद्रकांत देवताले की कविता और कृति

रवींद्र व्यास
Ravindra VyasWD
जिंदगी में यह होता है, कि किसी के जाने के बाद उसकी मौजूदगी के अहसास लगातार बना रहता है बल्कि समय बीतने के साथ वह अहसास गहरा होता जाता है। माँ के जाने के बाद उसका अहसास भी लगातार घना होता जाता है। किसी भी बच्चे के लिए उसकी माँ की अनुपस्थिति बहुत पीड़ादायक हो सकती है क्योंकि माँ का न होना उसके लिए पूरे भरे-पूरे संसार का न होना है।

माँ का होना भरे-पूरे संसार का होना है। उसकी अनुपस्थिति में उसका संसार हमें हमेशा घेरे रहता है। उसकी स्मृतियाँ हमें हमेशा किसी मुलायम आँचल की तरह लपेटे रहती हैं। कितनी ही बातें, नसीहतें, कितनी घटनाएँ और कितने सारे पाठ माँ से गहरे जुड़े होते हैं जिन्हें भुलाया जाना असंभव है। कई बार उन्हें व्यक्त करना असंभव होता है। और यही कारण है कि माँ पर लिखना भी बेहद मुश्किल होता है।

हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि चंद्रकांत देवताले के लिए भी यह मुश्किल है कि वे माँ पर कविता लिख सकें। इसीलिए मदर्स के मद्देनजर हमने उनकी यह मार्मिक कविता चुनी है। इसका शीर्षक है-माँ पर नहीं लिख सकता कविता। उनकी इस कविता की पहली पंक्ति माँ पर कविता न लिख पाने की असर्थमता नहीं बल्कि एक गहरी पीड़ा है। माँ की गहरी स्मृतियाँ हैं कि कवि के मस्तिष्क में अमर चींटियों का दस्ता हमेशा रेंगता रहता है-

माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊँटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज चुटकी दो चुटकी आटा डाल देती ह ै

इसके बाद की पंक्तियाँ घट्टी पीसने की आवाज के साथ ही कवि को (और साथ साथ हमें भी) उस दुनिया में ले जाती हैं जहाँ माँ का संसार फैला हुआ है। एक आत्मीय और गहरा संसार। यह माँ को याद करने का बेहद मार्मिक तरीका है। माँ को यहाँ काम करते हुए याद किया जा रहा है यानी यहाँ माँ किसी तरह का आराम नहीं कर रही है बल्कि घट्टी पीस रही है और घट्टी पीसने का अर्थ सिर्फ घट्टी पीसना नहीं बल्कि रोटी बनाने पकाने तक का मामला, भूख और स्वाद का मामला है जिसके जरिये वह अपने बच्चों को आग और भूख के स्वाद से परिचित कराती है।

यह घट्टी पीसने की आवाज कवि को घेरती है और हमें भी और हम दूसरी दुनिया में जाकर उस विरल उपस्थिति को महसूस करते हैं।

मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज
मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हू ँ

और इसके बाद यह कवि बहुत ही आम अनुभवों को अभिव्यक्त करते हुए अपने निहायत ही निजी अनुभव के जरिये हमें हमारे ही अनुभव से जोड़ देता है और हम पाते हैं कि हमारी माँ दाने और मटर छिलकर हमारी नन्ही हथेलियों पर रख रही है। और हम पाते हैं कि कवि के साथ ही हमारे हाथ भी थरथरा रहे हैं। कितनी खूबी से यह कविता अपने निजी अनुभव का अतिक्रमण कर सबके अनुभव का हिस्सा बन जाती है।

जब कोई भी माँ छिलके उतारकर
चने, मूँगफली या मटर के दाने
नन्ही हथेलियों पर रख देती हैं
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर
थरथराने लगते है ं

शायद इस दुनिया में माँ ही वह पहली व्यक्ति होती है जो किसी बच्चे को दुनिया में पहले- पहल के तमाम अनुभव से परिचित कराती है। चाहे देह हो या आत्मा, आग हो या पानी, वह कभी अपने बच्चों को भूखा नहीं सोने देती। इसीलिए कवि कहता है कि -

माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिय ा

और शायद यही कारण है कि यह कवि के मुश्किल है कि वह माँ पर कविता नहीं लिख सकता । वह दुनिया के तमाम असंभव काम कर सकता है। उन्हें कल्पनाशील और बेहतर ढंग से अंजाम दे सकता है। वह चंद्रमा को गिटार में बदल सकता है और समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में कैद कर सकता है लेकिन माँ पर कविता नहीं लिख सकता-

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी लिख सकता हूँ कविता
माँ पर नहीं लिख सकता कविता।

एक बच्चे के लिए उसकी माँ हमेशा उसके आसपास ही होती है। दुनिया के तमाम उजाले औऱ अंधेरे, भूख और प्यास, आग और पानी के अनुभव देती हुई, समझाती और महसूस कराती हुई। जो माँ इस संसार में मानवीयता के तमाम दरवाजे खोलकर बताती हो उस पर क्या कोई कविता लिख सकता है। सचमुच पर माँ पर नहीं लिखी जा सकती कविता।

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