अब भी अच्छे लगते हैं तितली और फूल

अनीता वर्मा की कविता और प्रेरित कलाकृति

रवींद्र व्यास
WD
हमें कितनी सारी नकली चीजों ने घेर रखा है। हम दिन-रात उनके बीच खटते रहते हैं। उन्हें देखते रहते हैं। चमकीले-भड़कीले रंगों के बीच। जैसे उन्हें ही देखने के लिए विवश हों। हमें बहुत सारी चीजें अच्छी लगती हैं लेकिन क्या हमें तितली और फूल अब भी अच्छे लगते हैं।

हमने जैसे इन्हें अपने जीवन से ब ेदखल कर दिया हो। अब कहाँ हममें वह उत्साह और कौतुहल बचा है कि तितलियों को देख कर चहक उठें या उन्हें पकड़ने के लिए लपक उठें। न ताल को न उसके गहरे नीले जल को देखते हैं। और सिर उठाकर ऊपर आसमान को भी नहीं जहाँ बादल अपना रूप बदल कर नए नए रूप धरकर बहते रहते हैं। वे बहते रहते हैं और हम नीचे पता नहीं उनसे बेखबर किसी नकली दुनिया में ही मशगूल रहते हैं। और क्या हम बच्चों की हँसी भी ध्यान से देखते हैं जो कहीं न कहीं हमें निर्मल करती है, नए उत्साह और आशा से भर देती है।

अनीता वर्मा की एक कविता है वह सब। यह कविता उनके पहले कविता संग्रह एक जन्म में सब से चुनी गई है। इसकी शुरूआती सात पंक्तियाँ हमें एक कवि की निगाह से बिना कोई नकली मुद्राए बनाए वे चीजें बताई और गिनाई जा रही हैं जो अच्छी लगती हैं।


अब भी तितली और फूल अच्छे लगते हैं
ताल का जल जब गहरा नीला होता है
आकाश में उड़ते बादलों में
जब हम खोजते हैं चित्र-विचित्र आकार
बहुत से शब्द जबकि खो चुके हैं
फिर भी चटख और उदास रंग
और बच्चों की हँसी अच्छी लगती है

लेकिन इन पंक्तियों के बाद यह कविता एकदम दूसरे धरातल पर जाकर कुछ अधिक मार्मिक बात कहती है। ज्यादा सच्ची, ज्यादा खरी और उदास करने की हद तक। गौर करिए -

जो कहते हैं कि वे खुश हैं
उन्हें देख उदास हो जाता है मन
झूठ अपने मुलम्मे में भी दिख जाता है
जिन सफेद फूलों के सपने देखे थे
वे अब भी सिरहाने आ बैठते हैं
दूर बहता पानी और हिम शिखर
वह सब अच्छा लगता है
जो उपस्थित नहीं होता।

एक कवि खुश चेहरे में छिपी उदासी को कितनी अचूक निगाह से देख लेता है और दिखा देता है। और उस बात को कितने काव्य कौशल से अभिव्यक्त कर देता है। जिन सफेद फूलों के सपने देखे गए थे वे सिरहाने आकर बैठ जाते हैं। बहता पानी और बर्फ की चोटी भी अच्छे लगते हैं। और आखिरी दो पंक्तियों में यह कविता अपना मर्म खोलती है कि वह सब अच्छा लगता है जो उपस्थित नहीं होता।

वह चाहे तितली और फूल हों, बच्चों की हँसी हो, उदास या चटख रंग हों या फिर हों वे वे सपने जिनमें सफेद फूल देखे गए थे। ये सब इसलिए अच्छे लगते हैं कि ये कवि के जीवन में हमारे जीवन में हैं ही नहीं। जो नहीं है वही अच्छा लगता है। एक सच्ची निराशा हमें इसमें थरथराती महसूस कर सकते हैं। अपनी ही निराशा का सच्चा स्वीकार इसमें पढ़ा जा सकता है। कितनी मर्मभेदी है यह निराशा की अभिव्यक्ति। कितनी पीड़ादायी है।

लेकिन लगता है इसी सच्ची निराशा से वह किरण फूटेगी जिसमें जो उपस्थित नहीं है वह होगा एक दिन। दुनिया के सारे कवि अपनी कविता में यही तो स्वप्न देखते हैं कि जो नहीं है वह होगा एक दिन। उनकी सच्ची निराशा से ही सच्ची आशा की किरणें फूटती हैं। इसीलिए तो तितली और फूल अच्छे लगते हैं, बच्चे की हँसी और चटख और उदास रंग भी।
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