मित्रता के कवि केदारनाथ अग्रवाल

जन्मशती के अवसर पर

Webdunia
राजेश जोशी
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केदार की कविता में जितनी धरती है उतना ही आकाश भी है। आठवें दशक की उनकी कविता में चिड़ियों को देखकर आरोप लगाने वालों को केदार की कविताओं की उन चिड़ियों के चहचहाने को सुनना चाहिए जो जब पत्थर पर बैठकर चहचहाती हैं तो पत्थर भी बोलने लगते हैं।

प्रगतिवादी कवियों ने जिस तरह मुक्त मन से एक-दूसरे के प्रति कविताएँ लिखी हैं ऐसा संभवतः किसी दूसरे दौर में नहीं हुआ। इन कविताओं में निश्छल और गहन आत्मीयता है। व्यक्तियों के बारे में लिखी गई सर्वश्रेष्ठ कविताओं का कोई संग्रह अगर बनाया जाए तो केदारनाथ अग्रवाल की नागार्जुन के बांदा आने पर और नागार्जुन की केदारनाथ अग्रवाल पर लिखी गई कविता 'ओ जन मन के सजग चितेरे' को उसकी प्रथम पंक्ति में रखना होगा। ये दोनों ही कविताएँ व्यक्ति को उसकी पूरी सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ रख कर देखती हैं। नागार्जुन की कविता 'ओ जन मन के सजग चितेरे' का एक दिलचस्प अंश है :

आसमान था साफ, टहलने निकल पड़े हम
मैं बोला : केदार, तुम्हारे बाल पक गए!
चिंताओं की घनी भाप से सीझे जाते हैं बेचारे -
तुमने कहा सुनो नागार्जुन
दुख-दुविधा की प्रबल आँच में
जब दिमाग ही उबल रहा हो
तो बालों का कालापन क्या कम मखौल है?

नागार्जुन की यह कविता सिर्फ केदारनाथ अग्रवाल का ही एक मुकम्मल खाका नहीं खींचती है वह बांदा में केदारनाथ अग्रवाल को देखने की कोशिश करती है। और सिर्फ कवि केदार को नहीं, उस पूरे व्यक्ति को जो कवि भी है, वकील भी, एक नागरिक भी है और एक मित्र भी। जिसे बांदा वाले नहीं पहचान सकते, आम मुवक्किल, हाकिम और मुलाजिम भी पूरा-पूरा नहीं पहचान सकते। इसे नागार्जुन ने पहचाना है। समझा-बूझा है और जाना है...इसलिए अपनी पूरी उमंग और गहन मित्रता के ओज में वह कहता है :

केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो!
कालिंजर का चौड़ा सीना वह भी तुम हो!
ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो!
कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो
खड़ी सुनहली फसलों की छवि छटा निराली, वह भी तुम हो!
लाठी लेकर कालरात्रि में करता जो उनकी रखवाली,
वह भी तुम हो
जन गण मन के जाग्रत शिल्पी
तुम धरती के पुत्र : गगन के तुम जामाता!
नक्षत्रों के स्वजन कुटुंबी, सगे बंधु तुम नद नदियों के!
झरी ऋचा पर ऋचा तुम्हारे सबल कंठ से
स्वर लहरी पर थिरक रही है युग की गंगा

इन बारह पंक्तियों में नागार्जुन केदार की कविता के स्वभाव को जितना समेट लेते है उतना बारह पृष्ठों में लिखा कोई आलोचनात्मक लेख भी शायद ही समेट सके। केदार की जीवन दृष्टि, उसकी लय, उसकी गति, उसके बिंब सबका एक मुकम्मिल खाका जैसे नागार्जुन ने खींच दिया है।

यह इस बात का भी प्रमाण है कि उन कवियों की मित्रता कितनी गहरी थी और वे एक-दूसरे के मन को, व्यक्तित्व को और उसकी रचना को कितनी गहराई से जानते पहचानते थे। केदारनाथ अग्रवाल की शमशेर पर लिखी एक बहुत छोटी सी कविता भी इसका सुंदर उदाहरण हो सकती है। चार पंक्ति की इस छोटी सी कविता में केदार शमशेर और उनकी कविता को एक बिंब में बदल देते हैं :

शमशेर - मेरा दोस्त!
चलता चला जा रहा है अकेला
कंधे पर लिए नदी,
मूंड पर धरे नाव!

केदारनाथ अग्रवाल वस्तुतः मित्रता के कवि हैं। उनकी कविता का केंद्रीय भाव मित्रता है, आत्मीयता है। यह मात्र संयोग नहीं है कि डॉ. रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल के बीच हुई चिट्ठी पत्री के संग्रह का नाम भी 'मित्र संवाद है'। यह मित्रता फिर चाहे अपने समकालीन कवि मित्रों से हो, नद-नदियों से, धरती से, आकाश से, फसलों से, साधारण जन से ...

केन नदी पर चाहे कुछ ही कविताएँ केदार जी ने लिखी हों लेकिन उनकी कविता पढ़ते हुए हमेशा लगता है जैसे उनकी सभी कविताओं की लय के अंतरतल में केन के प्रवाह की लय विन्यस्त है। वह कभी थिर होती है और कभी प्रबल आवेगमयी। वह जब लगभग शांत है तब भी उसके आसपास कुछ न कुछ हो रहा है। जीवन की गति वहाँ रुकती नहीं है।

केन किनारे/पलथी मारे/ पत्थर बैठा गुमसुम!
सूरज पत्थर/सेंक रहा है गुमसुम!
सांप हवा में/ झूम रहा है गुमसुम!
पानी पत्थर/ चाट रहा है गुमसुम!
सहमा राही/ ताक रहा है गुमसुम!

केदार की कविता में नद-नदियों की कभी शांत और कभी अवेगमयी लय और गति है। उनकी कविता में जितनी धरती है उतना ही आकाश भी है। वहाँ वृक्ष भी हैं और चिड़ िय ा भी। आठवें दशक की कविता में चिड़ियों को देखकर आरोप लगाने वालों को केदार की कविताओं की उन चिड़ियों के चहचहाने को सुनना चाहिए जो जब पत्थर पर बैठकर चहचहाती हैं तो पत्थर भी बोलने लगते हैं।

वस्तुतः मैं हमेशा से यह मानता रहा हूँ कि मुक्तिबोध , शमशेर , नागार्जुन , केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन हिंदी कविता की काया के पंचतत्व हैं और निराला उसके प्राणतत्व हैं इसलिए इन पांचों कवियों और निराला को बिना एक-दूसरे के संदर्भ के पूरा नहीं जाना जा सकता। नदियों पर कितनी ही कविताएं केदार जी का नाम लेते ही याद आने लगती हैं। उनमें फसलों को लेकर उमग उठने वाला कृषक मन भी है और फटकारकर खरी-खरी कहने वाला साहस भी।

उसमें 'चंद्र गहना से लौटती बेर' और 'हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ' जैसी अद्भुत कविताएँ हैं तो दूसरी ओर 'मैंने उसको जब-जब देखा' या 'काटो काटो काटो करबी/ साइत और कुसाइत क्या है/ जीवन से बढ़ साइत क्या है' जैसे गीत या 'एक हथौड़े वाला घर में' और हुआ जैसे गीत भी हैं।

युवा आलोचक सुधीर रंजन केदार की बहुचर्चित कविता 'बसंती हवा को' शैली की 'ओड टू दॅ वेस्ट विंड' के साथ देखने का आग्रह करते हैं। संभव है कि कहीं न कहीं वेस्ट विंड की प्रेरणा अवचेतन में मौजूद रही हो लेकिन बसंती हवा की जो लय और गति है वह वेस्ट विंड से बहुत भिन्न है। इस तरह की कविताओं में केदार जी के मन की उमंग और उत्फुल्लता देखने लायक होती है। इस कविता का एक छोटा सा और अंतिम अंश देखकर ही इसमें केदार जी के मिजाज का अंदाजा हो जा सकता है :

मुझे देखते ही अरहरी लजाई/मनाया- बनाया, न मानी, न मानी/उसे भी न छोड़ा/ पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला लगी जा /ह्रदय से, कमर से चिपक कर / हँसी जोर से मैं/ हँसी सब दिशाएँ/ हँसे लहलहाते खेत सारे / हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी/ बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी/ हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा!

केदार मित्रता के कवि हैं इसलिए उनकी कविता में एक उमंग है, उल्लास है और उजाले हैं। उनकी पत्नी पर लिखी कविताएँ भी मित्र भाव की हैं।

हे मेरी तुम!
गठरी चोरों की दुनिया में
मैंने गठरी नहीं चुराई
इसीलिए कंगाल हूँ
भुख्खड़ शंहशाह हूँ
और तुम्हारा यार हूँ
तुमसे पाता प्यार हूँ।

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