मैंने जीवन की जघन्यता को देखा है

आत्मकथ्य: विजय तेंडुलकर

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मैं निजी तौर पर ऐसे लोगों की परवाह नहीं करता जो जिंदगी से रूबरू नहीं हुए हैं। वे सच ाइयों से ऐसे आँख मूँद लेते हैं जैसे वे हैं ही नही ं, जबकि सच यह है कि जिंदगी अँधेरी और क्रूर है। इसी कारण लोग सच की परवाह नहीं करते। लोग जीवन की सच ाइयों को इसलिए नहीं देखना चाहते क्योंकि वे उन्हें पेरशान करती हैं। यदि इन सच ाइयों से भागना ही आपके लिए जीना है तो फिर आप सच को कभी नहीं देख पाएँगे।

मैं हायपोथेटिकल होकर नहीं लिखता, मैं दुःख के काल्पनिक संसार को भी नहीं रचता। मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ और मैंने अपनी नंगी आँखों से जीवन की जघन्यता को देखा है। मेरा लिखा मेरे भीतर से पैदा होता है और यह मेरे देखे संसार का नतीजा है, जिसमें मैं जीता हूँ। जो मनोरंजन करना चाहते हैं वे करें, लेकिन मैं तो सच ही बोलूँगा-लिखूँगा।

यदि आप चीजों को अच्छे-बुरे, सही-गलत के नजरिये से देखने की कोशिश करेंगे तो सच को कभी भी समग्रता में नहीं देख पाएँगे। गुनहगार, सिर्फ गुनहगार नहीं होता, एक हत्यारा भी स्नेही पिता हो सकता है। चीजों पर किसी तरह का कोई चस्पा नहीं लगाया जाना चाहिए।

आप और हम जिन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं वे पूरे दृश्य को रचने के लिए नाकाफी हैं। हमेशा शब्दकोशों में भरे अर्थों से बचने की कोशिश करना चाहिए। मैं अपने लिए जरूरी मानता हूँ कि लगातार खुली आँखों से देखता रहूँ। मेरे लेखन में यह सब बिना सजग हुए बहुत सहज ढंग से अभिव्यक्त होता है।

आपके भोगे अनुभव और अभिव्यक्ति में एक दूरी का होना जरूरी है, इससे बहुत मदद मिलती है। उसी वक्त लिखना जरूरी नहीं है जब आप किसी अनुभव से गुजरते हैं। उसे समय दीजिए, इससे आप चीजों को सही और साफ ढंग से देख पाएँगे। जब आप अपने भोगे अनुभव से एक दूरी पर खड़े होंगे, तब चीजों को बाहर से देख पाएँगे। तब आप जो लिखेंगे वह ज्यादा ईमानदारी भरा होगा। रचने की यातना में सच हमेशा वहाँ मौजूद होगा। यह तपस्या की तरह है, इसे सहना आना चाहिए।

नए लेखकों को इससे घबराना नहीं चाहिए कि वे किसी बात के बारे में बहुत गहराई से महसूस करते हैं और लिखने बैठते हैं, तो बचकाना लगता है। यह कई अनुभवी लेखकों के साथ भी होता है। जो लिखा है, उसके पास दस दिन बाद, बीस दिन बाद लौटें और फिर लिखें और तब आप पाएँगे हाँ यह सार्थक है। लिखने के पहले मैं कुछ भी जानने की कोशिश नहीं करता, बस मैं लिखता हूँ। लिखने के लिए कोई जिंदा नहीं रहता, आप जिंदा रहें और लेखन उसमें से पैदा होता है। मैं अपनी आँखों को खुली रखते हुए जीता हूँ, बारीकी से अवलोकन करता हूँ और तब मैं जो महसूस करता हूँ वहीं से लेखन पैदा होता है कि मैंने क्या देखा और फिर लिखता हूँ।

मैं कुछ महसूस करता हूँ और तब उसे अभिव्यक्त करता हूँ। मेरा लेखन मेरे जिए जीवन से आता है। रचना प्रक्रियाएँ कई तरह की होती हैं। हर लेखक के लिए अलग-अलग तरीके से ये काम करती हैं। उदाहरण के लिए अफजल का प्रकरण लें। इस संबंध में तमाम अखबारों और पत्रिकाओं में छपे लेखों को पढ़ता हूँ, उसके बारे में धीरे-धीरे सभी सूचनाएँ इकट्ठा करता हूँ। हो सकता है किसी दिन उसके बारे में मैं कुछ लिखूँ।

मैं सोचता हूँ, दृष्टा और घटना का सहअस्तित्व ही यथार्थ है। यथार्थ तभी यथार्थ होता है जब वह देखा गया है। एक एब्सोल्यूट यथार्थ जैसी कोई चीज नहीं होती। परेशान होने की जरूरत नहीं, आप जो देखते हैं वह लिखें। अच्छा लिखने के लिए अच्छा पढ़ना जरूरी है।

अपने कमरे में अकेला बैठा आदमी किताब पढ़ रहा है और बाहर नहीं देख रहा है, लेकिन यदि आप अवलोकन करते हैं और पढ़ते भी हैं तो यह आपकी भाषा के औजारों को और भी धारदार बनाता है। इससे आपको अभिव्यक्ति के तरीके मालूम पड़ते हैं। यह सीखना चाहिए कि कैसे अपने को अभिव्यक्त किया जाए। इससे भाषा मँजती है और लिखना आसान होता है। पढ़ना एक अलग ही अनुभव है। आपका लेखन हमेशा आपके अनुभवों और दूसरे लोगों से प्रभावित रहता है।

लिखने के लिए कोई उम्र नहीं होती। मैंने तो बहुत कम उम्र से लिखना शुरू कर दिया था। लेकिन अधिक उम्र में भी लिखते हैं तो इसे देरी से शुरुआत कतई न मानें। उम्र की कभी चिंता नहीं करना चाहिए। मेरे ऐसे दोस्त हैं, जिन्होंने 50 की उम्र में लिखना शुरू किया और वे बहुत खूब लिख रहे हैं। बस लिखते रहें, वह संभव होगा। प्रस्तुति- रवींद्न व्यास

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