याद आते हैं आज भी भगतसिंह

-राजशेखर व्यास

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' अंगरेजों की जड़ हिल चुकी है, वे पन्द्रह सालों में चले जाएँगे, समझौता हो जाएगा, पर उससे जनता को कोई लाभ नहीं होगा, काफ़ी साल अफरा-तफरी में बीतेंगे, उसके बाद लोगों को मेरी याद आएगी'।

- बलिदान से पूर्व 20 मार्च 1931
भगतसिंह अपनी अन्तिम भेंट में

आजादी को 60 साल और भगतसिंह की शहादत को लगभग 76 वर्ष होने को आए, लेकिन आज भी अगर भगतसिंह सामायिक और प्रासंगिक लगते है तो वजह उनके विचारों की यह ताजगी ही है। पिछले 5 दशक में देश में जो अफरातफरी मची है उस समय भगतसिंह आए बिना रह भी नहीं सकते। कौन जानेगा मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंगला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ चिंतक और विचारक भगतसिंह भारत में समाजवाद के पहले व्याख्याता थे।

कालमार्क्स और लेनिन की तरह वे अपने देश में समाजवाद के सबसे प्रखर चिंतक और अपने समकालीन लगभग सभी राजनेताओं से वैचारिक दृष्टि में एक इंच ऊपर थे। अब यह बात सप्रमाण कही जा सकती है। मसलन 1930 में बैठकर कौन व्यक्ति यह कह सकता है कि 'लगभग 15 वर्ष बाद स्वतंत्रता तो मिल ही जाएगी पर वह स्वतंत्रता एक किस्म की सत्ता का हस्तांतरण ही होगा, किसी-न-किसी किस्म का समझौता होगा।'

पंजाब की भाषा समस्या पर विचार करते वक्त मानों वर्षों पूर्व वे आज के भाषा विवाद को भी देख लेते हैं। सांप्रदायिक दंगों और धर्म को लेकर उनके विचार आज बेहद जरूरी नजर आते हैं। एक तरफ बापू का दरिद्रों को दरिद्र नारायण कहना, दरिद्रता को महिमामंडित करना और 23 वर्ष की अल्पायु में भगतसिंह का यह जान लेना -'क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीब एक अभिशाप है, यह एक दंड है ('मैं नास्तिक क्यों हूँ' का एक अंश)

' कारावास की काल कोठरियों से लेकर झोपड़ियों तथा बस्तियों में तड़पते लाखों इंसानों समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की प्रक्रिया को धैर्यपूर्वक या यह कहना चाहिए कि निरूत्साहित होकर देख रहे हैं तथा उस मानव शक्ति की बरबादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई व्यक्ति जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है भय से सिहर उठेगा और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बॉंटने के बजाए समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है उसको यह सब देखने दो और फिर कहो कि सब कुछ ठीक है।'

' तुम क्या सोचते हो किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार जैसे चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इंसान का क्या भाग्य होगा क्योंकि वह गरीब है इसलिए वह पढ़ाई नहीं कर सकता, वह अपने साथियों से तिरस्कृत तथा त्यक्त (?) रहता है। जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने आप को ऊँचा समझता है। उसका ज्ञान उसकी गरीबी तथा उसके साथ किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देता है। यदि वो कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनुष्य?'

मेरे प्रिय दोस्तों, ये सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के अविष्कार हैं। वह अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी तथा उच्चता को इन सिद्धांतों के आधार पर सही ठहराते हैं।

जी हाँ, शायद वह 'अप्टन सिंकलियर' ही था जिसने किसी जगह लिखा था 'मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन और संपत्ति लूट लो। वह बगैर बढ़-बढ़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फांसीधर, कोठे और ये सिद्धांत उपजते हैं।'

ऐसा नहीं है कि प्रारंभ से भगतसिंह धार्मिक थे और बाद में नास्तिक हो गए हो। क्रांतिकारी विचारों के दार्शनिक भविष्य दृष्टा भगतसिंह बचपन से ही नास्तिक प्रकृति के थे। उनकी उम्र बमुश्किल से तब 8-9 साल की रही होगी। गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। एक दिन उनकी छोटी बहन अमरकौर कहीं से एक कागज ले आई। यह किसी प्राचीन धार्मिक पुस्तक का काग़ज था। बड़े चाव से उन्होंने भगतसिंह को दिया। भगतसिंह ने उसे पढ़ा, देखा। फिर बोले-अमरों, अंग्रेजों के साथ ही धर्म ने भी हमारे देश में बहुत गड़बड़ कर रखी है। मैं अंग्रेजों के साथ इसे भी खत्म कर दूँगा।

बीबी अमरकौर के शब्दों में उन्होंने उस काग़ज को जमीन पर पटक दिया और दोनों पैर से उसके ऊपर खड़े हो गए। उस समय उनका चेहरा ऐसा तमतमा रहा था जैसे वह अपने किसी दुश्मन को खत्म कर रहे हों। वर्षों बाद जब वे लाहौर के डी.ए.वी. कॉलेज में पढ़ते थे । जहाँ प्रतिदिन हवन होता था और आँखें मूंदकर प्रार्थना होती थी जिसमें मोक्ष की भी बात होती थी। भगतसिंह ने उसमें कभी भी रूचि नहीं दिखाई बल्कि इससे विद्रोह भी किया। उनकी यह छटपटाहट तब और भी बढ़ गई जब उन्होंने कॉलेज गेट पर बैठे बूढ़े बाबा को ठंड में ठिठुरते, काँपते हुए चने बेचते हुए देखा। भगतसिंह ने उससे पूछा,'तुम्हारा और कोई नहीं बाबा? तराजू उससे संभल नहीं रही थी। कंपकंपी में उसने उत्तर दिया - 'नहीं' । पास खड़े एक सहपाठी ने उत्तर दिया -'यह सब इसके कर्मों का फल है।'

एकदम से फट पड़े भगतसिंह । बोले -'यह सब बहलावा है। इस बूढ़े को रोटी और काम का सहारा समाज से मिलना चाहिए। जब तक एक मनुष्य भी भूखा है, हम सब दोषी हैं क्योंकि हम सब खा रहे हैं। जब तक एक मनुष्य भी बंधन में है, हम सब भी स्वतंत्र नहीं हैं। पर यह सब आँख मूँदकर मोक्ष की प्रार्थना करने से नहीं सोचा जा सकत।

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इस घटना के कुछ बरस बाद जब उनसे उनके क्रांतिकारी मित्र ने पूछा - तुम क्या करोगे ? कैसे व्यवस्था करेंगे ? इन सब मामलों को कैसे निपटाओगे। तब तक अपने गंभीर राजनैतिक अध्ययन चिंतन से उनकी दृष्टि और स्पष्ट व साफ हो गई थी। उन्होंने पूरी दृढ़ता से कहा था -अगर हमें सरकार बनाने का अवसर मिलेगा तो किसी के पास प्राइवेट प्रॉपर्टी नहीं होगी, सबको काम मिलेगा। मित्र ने पूछा और धर्म का क्या करोगे? क्या उसे गैर-कानूनी करार दोगे? उनका उत्तर था - धर्म व्यक्तिगत विश्वास की चीज होगी, सामूहिक नहीं।

अमर शहीद भगतसिंह को हमेशा से एक क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में जाना जाता है। मगर वे सिर्फ एक क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशीरल विचारक, कलम के धनी, दार्शनिक, चिंतक, लेखक, पत्रकार और महान मनुष्य थे। अपनी 23 वर्ष की छोटी-सी आयु में फ्रांस, आयरलैंड और रूस की क्रांति का विषद अध्ययन किया था। नेशनल कॉलेज से लेकर फाँसी की कोठरी तक उनका यह अध्ययन बराबर जारी रहा और इसी अध्ययन के ही सहारे अन्ततः वे गंभीर चिंतक और क्रांतिकारी दार्शनिक बने। अनेक भाषाओं के जानकार भगतसिंह ने 'अकाली' और 'कीर्ति' दो अखबारों का संपादन भी किया। 'चांद' मासिक का जब्तशुदा फाँसी अंक भगतसिंह की संपादन योग्यता का उत्कृष्ट नमूना है। दल के पर्चे, पोस्टर तथा सारे साहित्य का सृजन आम तौर पर भगतसिंह अकेले ही करते थे। खेद तो इस बात का है कि एक महान उत्कृष्ट विचारक के ये महत्वपूर्ण विचार राष्ट्र के तथाकथित कर्णधारों के षड़यंत्रों के फलस्वरूप अब तक उन तक नहीं पहुँचे हैं, जिनके लिए वे शहीद हुए।

महान विचारक योद्धा भगतसिंह अपने विचारों, चिंतन और दर्शन के लिए भला क्यों न कई शताब्दियों तक प्रासंगिक रहेंगे! उनके विचार सदियों तक दिल और दिमागों में आग लगाते रहेंगे।

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