संवेदनशील अमर रचनाकार शरतचन्द्र

15 सितंबर : जन्मदिन पर विशेष

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देवदास, श्रीकांत और बिराज बहू जैसे चरित्र लिखकर पूरे देश में बेहद लोकप्रिय हुए शरतचन्द्र के बारे में समीक्षकों का मानना है कि वह हमेशा अपने आसपास के चरित्रों को अपना पात्र बनाते थे और उनके दिल की भाषा लिखने में माहिर थे।

शरतचन्द्र की लिखी प्रेमकथा देवदास एक ऐसा उपन्यास है जिसकी लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ रही है। कहानी की कसावट और पात्रों की जीवंतता के कारण देवदास न केवल पाठकों बल्कि फिल्मकारों का भी प्रिय विषय रहा है और हिन्दी में अब तक इस पर चार बार फिल्में बन चुकी हैं।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बांग्ला विभाग के पूर्व प्रमुख अमरनाथ गांगुली के अनुसार शरतचन्द्र का कोई भी चरित्र हमें ऐसा नहीं लगता कि यह हमारे परिवार या आसपड़ोस का न हो, इसी कारण भारत के किसी भी कोने के पाठक शरत की कहानियों और उपन्यास से बेहद जुड़ाव महसूस करते हैं।

गांगुली के अनुसार शरतचन्द्र ने अपने साहित्य में ज्ञान का डंका बजाने के लिए कभी कृत्रिम या बोझिल भाषा का इस्तेमाल नहीं किया। उनकी भाषा में सहज प्रवाह है और वह लोगों के दिल से निकलने वाली भाषा को लिखने में माहिर थे। उनके अनुसार शरत साहित्य का लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और हर भाषा के पाठकों को लगता है कि यह उनकी भाषा में ही लिखी रचनाएँ हैं।

गांगुली के अनुसार शरतचन्द्र के लेखन का एक अन्य मजबूत पक्ष उनकी कृतियों में मौजूद महिला पात्र हैं। भारत जैसे पुरूष प्रधान समाज में उन्होंने महिलाओं को जिस सशक्त ढंग से पेश किया है और महिला मन की बारीकियों को जिस तरह से पकड़ा है, वैसा किसी अन्य साहित्य में कम ही देखने को मिलता है।

उनके अनुसार देवदास की पार्वती का चरित्र इतना कसा हुआ है कि यदि इसमें एक सूत भी हेरफेर हो जाए तो उसकी आत्मा मर जाएगी। कथा साहित्य के माहिर शरतचन्द्र का स्वयं का जीवन भी किसी रोचक उपन्यास से कम नहीं है। उन्होंने अपने जीवन में तमाम ऐसे अनुभवों को हासिल करने के बाद अपनी कलम चलाई जिसे भद्र समाज में अच्छा नहीं माना जाता। 15 सितंबर 1876 को बंगाल के हुगली जिले में पैदा हुए शरतचन्द्र का बचपन घोर गरीबी में गुजरा।

शरतचन्द्र ललित कला के छात्र थे लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वह इस विषय की पढ़ाई नहीं कर सके। कॉलेज के दिनों में ही उन्हें चार्ल्स डिकेंस और लार्ड लिटन जैसे अंग्रेज लेखकों को पढ़ने का चस्का लग गया था। कुछ समीक्षक उनकी आरंभिक कहानियों और उपन्यासों में अंग्रेजी लेखकों के प्रभाव की बात स्वीकार करते हैं।

बचपन से ही काफी जागरूक और शरारती स्वभाव वाले शरतचन्द्र एक समय संन्यास की ओर प्रेरित हो गए। पिता के निधन के बाद उनकी प्रसिद्ध कहानी मंदिर छपी। यह कहानी उन्होंने सुरेन्द्र नाथ गांगुली के छद्म नाम से लिखी और यह पुरस्कृत हुई।

रोजगार के तलाश में शरतचन्द्र बर्मा गए और लोक निर्माण विभाग में क्लर्क के रूप में काम किया। कुछ समय बर्मा रहकर कलकत्ता लौटने के बाद उन्होंने गंभीरता के साथ लेखन शुरू कर दिया। बर्मा से लौटने के बाद उन्होंने अपना प्रसिद्ध उपन्यास श्रीकांत लिखना शुरू किया।

कुछ समीक्षकों का मानना है कि श्रीकांत के रूप में शरतचन्द्र ने अपने ही जीवन का निरूपण किया है। श्रीकांत उपन्यास अपने सशक्त महिला पात्रों के कारण भी जाना जाता है। यह उपन्यास चार खंडों में आया। कथा साहित्य के साथ शरतचन्द्र का झुकाव आजादी के आंदोलन की तरफ भी हुआ। वह महात्मा गाँधी से बेहद प्रभावित थे। उन्होंने अंग्रेजी शासन का विरोध करने वाले तमाम आलेख पत्र-पत्रिकाओं में लिखे। शरतचन्द्र का पाथेरदाबी : पथ के दावेदार : अंग्रेजी शासकों को बेहद नागवार गुजरा और इसे देशद्रोह को हवा देने वाला बताकर प्रतिबंधित कर दिया गया।

व्यक्तिगत जीवन में शरतचन्द्र को जैसे-जैसे सफलता मिलने लगी और उनकी आर्थिक स्थिति सुधरने लगी, उसी क्रम में उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा। उनका स्वास्थ्य बिगड़ने का एक बड़ा कारण शराब पीने की आदत थी। इस महान रचनाकार का निधन 16 जनवरी 1938 को हुआ। शरतचन्द्र की प्रसिद्ध रचनाओं में बड़ी दीदी, परिणीता, बिराज बहू, देवदास, चरित्रहीन, श्रीकांत, दत्ता, शेष प्रश्न शामिल हैं।

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