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कलम के पुजारी : पं. द्वारका प्रसाद मिश्र

5 मई : पुण्यतिथि विशेष

Webdunia
विनोद शंकर शुक् ल
ND
राजनीति के साथ साहित्य और पत्रकारिता में गहरी दखल रखने वाले नेताओं का जमाना1988 में पं.द्वारका प्रसाद मिश्र के देहावसान के बाद ही संभवतःसमाप्त हो गया। तिकड़मी राजनीतिबाजों के कारण ही आज राजनीति एक गंदी बस्ती बन गई है। नीति से उसका नाता वैसे ही टूट गया है, जैसे साम्प्रदायिक उन्माद के समय उन्मादियों का मानवता से टूट जाता है।

मेरे पिता मिश्र जी के सहपाठी और मित्र थे। मैंने देखा कि मिश्र जी की एक अंतरंग मित्र-मंडली थी, जिसके ज्यादातर सदस्य साहित्यकार और पत्रकार थे। मंडली में जिस स्तर की विद्वतापूर्ण साहित्य चर्चा और काव्योक्तियों से भरा वार्तालाप होता था, वह मुझ जैसे विद्यार्थी को एक अद्भुत-अपूर्व लोक में पहुँचा देता था।

मंडली में ही मुझे मिश्र जी की साहित्य-रसिकता और रामायण-महाभारत पर उनके असाधारण अधिकार का पता चला। एक बार जब उन्होंने चिता को रसपूर्ण तरीके से मीर के एक शेर का अपने द्वारा किया गया अनुवाद सुनाया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ कि राजनीति से भी उनका गहरा संबंध हो सकता है। मीर का वह शेर था-

वो आए बज्म में इतना तो मीर ने देखा
फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी न रही

आलोक मिश्र जी की साहित्यिक-मंडली में जहाँ मुझे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामाधारी सिंह दिनकर, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी जैसे दिग्गज साहित्यकारों के दर्शन हुए, वहीं मैंने एक समय की नवोदित लेखिका मेहरुन्निसा परवेज को भी उनसे साहित्यिक विमर्श करते देखा। मिश्र जी की गोष्ठियॉं वैसी दरबारी नहीं होती थीं, जिनमें मात्र प्रशस्तियों का गायन किया जाता है। प्रशस्तियाँ होती थीं,लेकिन साहित्य और इतिहास चर्चा का स्तर इतना ऊँचा होता था कि प्रशस्तियाँ उसी प्रकार पृष्ठभूमि में चली जाती थीं, जैसे सूर्य के उदय होने पर आकाश से तारे चले जाते हैं।

मिश्र जी श्रेष्ठ कवि और पत्रकार थे। 1942 में जेल में रहते हुए उन्होंने 'कृष्णायन' महाकाव्य की रचना की थी। कृष्ण के जन्म से लेकर स्वर्गारोहण तक की कथा इस महाकाव्य में कही गई है। महाभारत के कृष्ण हमेशा मिश्र जी के आदर्श रहे। एक ही काव्य रचना के बाद मिश्र जी की कलम मौन क्यों हो गई?

इस प्रश्न के उत्तर में 'कृष्णायन' का उच्चकोटि की कृति मानते हुए कविवर रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि 'शरभ (खरगोश) जीवन में एक ही संतान जनता है। काव्य के क्षेत्र में भी कोई-कोई कवि शरभ धर्म का पालन कर अपना कार्य शेष कर देते हैं।

प्रखर पत्रकार के रूप में मिश्र जी ने 1921 में 'श्री शारदा' मासिक, 1931 में 'दैनिक लोकमत' और 1947 में साप्ताहिक 'सारथी' का सम्पादन किया। लाला लाजपत राय की अँग्रेजों की लाठी से हुई मौत पर 'लोकमत' में लिखे उनके सम्पादकीय पर पं. मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि भारत का सर्वश्रेष्ठ फौजदारी वकील भी इससे अच्छा अभियोग पत्र तैयार नहीं कर सकता। पं. नेहरू से मतभेद के कारण मिश्र जी को तेरह वर्षों तक राजनीतिक वनवास भोगना पड़ा।

वनवास के वर्षों (1954 से 64) तक उन्होंने सागर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में व्यतीत किया। मिश्र जी के विद्या-व्यसन के संबंध में कहा जाता था कि विश्वविद्यालय के किसी प्राध्यापक या विद्यार्थी से अधिक उसके कुलपति अध्ययन-रत रहते हैं। 1971 में राजनीति से अवकाश लेकर उन्होंने सारा समय साहित्य को समर्पित कर दिया।

अँग्रेजी में अपनी आत्मकथा 'लिविंग एन एरा' लिखी, जिसमें बीसवीं सदी का पूरा इतिहास समाहित हैं। ऐतिहासिक शोध ग्रंथ लिखे, जिनमें 'स्टडीज इन द प्रोटो हिस्ट्री ऑफ इंडिया और 'सर्च ऑफ लंका' विशेष उल्लेखनीय हैं। हिंदी, अँग्रेजी, संस्कृत और उर्दू भाषा के साहित्य से उनका गहरा लगाव था।

संस्कृत कवियों और उर्दू के शायरों के हिंदी अनुवाद में उन्हें काफी रस मिलता था। शतरंज के वे माहिर खिलाड़ी थे। ऐस े साहित्यकार, इतिहासविद् और प्रखर राजनेता का 5 मई, 1988 को दिल्ली में देहावसान हो गया। उनका पार्थिव शरीर जबलपुर में नर्मदा के तट पर पंचतत्व में लीन हुआ।

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