ममता का स्पर्श : मदर टेरेसा

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27 अगस्त 1910 को वर्तमान मेसीडोनिया के स्कोपजे शहर में एक अल्बानियाई परिवार में एक बच्ची का जन्म हुआ। उसके रोमन कैथोलिक माँ-बाप ने उसका नाम रखा एग्नेस गोंजे बोज़ावियू। उसकी फूल सी प्यारी मुस्कान के कारण घर में सब उसे गोंजे (कली) कहकर बुलात े।

एग्नेस के बहुभाषी पिता व्यापारी थे। नई-नई जगहों पर घूमने के अलावा उनका एक और गहरा शौक था और वो था राजनीति में दिलचस्पी। बालिका एग्नेस ने परोपकार का पहला पाठ अपने घर पर ही पढ़ा था। घर में तमाम अभावों के बावजूद वह देखती कि दरवाजे पर आने वाला कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटाया जाता था। उसके लाड़ प्यार भरे दिन ज्यादा लंबे नहीं थे। नियति को उसका और उसका पिता का लंबा सान्निध्य मंजूर नहीं था। जब एग्नेस मात्र 8 वर्ष की थी तभी उसके पिता का असमय निधन हो गया।

माँ ने एग्नेस और उसके दो भाई-बहनों को पालने-पोसने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। वो लोगों के कपड़े सिलकर, उन पर कढ़ाई करके अपने घर का खर्च चलाती लेकिन उसने अपने बच्चों को पढ़ाना लिखाना जारी रखा। हर रोज शाम को वो अपने बच्चों के साथ चर्च जाना न भूलतीं और वहाँ वे मदर मेरी की सेवा में सहयोग करतीं।
  मदर टेरेसा ने सारे संसार का भ्रमण किया, वो हर उस जगह गईं जहाँ उनकी जरूरत थी। चाहे फिर वो इसराइल-फिलिस्तीनी युद्ध क्षेत्र हो या चेर्नोबिल का रेडियोधर्मी विकिरण क्षेत्र या फिर भूकंप पीड़ित अमेरिका। सन 1996 तक 100 से अधिक देशों में उनकी 517 मिशनरी थीं।      


एग्नेस को चर्च का वातावरण बहुत अच्छा लगता। शांत सरल एग्नेस को वहाँ की प्रार्थनाएँ, संगीत और सबसे बढ़कर मदर मेरी की आभा अपनी ओर आकर्षित करती। चर्च में अक्सर उसे स्लोवेनिया और क्रोएशिया की मिशनरीज द्वारा भारत में किए जा रहे नेक कामों की बातें सुनने को मिलतीं। बचपन से ही सहृदय और परोपकारी रही एग्नेस को इन बातों ने प्रेरित करना शुरू कर दिया।

18 वर्ष की अवस्था में एग्नेस ने अपना परिवार त्याग दिया और आयरलैंड जाकर एक मिशनरी के रूप में 'सिस्टर्स ऑफ लॉरेटो' में शामिल हो गई। वहाँ उन्होंने अँगरेजी सीखी। क्योंकि यही वह भाषा थी जिसके माध्यम से 'सिस्टर्स ऑफ लॉरेटो' संगठन भारत में शिक्षा दिया करता था। यहीं पर उन्होंने प्रसिद्ध कैथोलिक संत और मिशनरियों की संरक्षिका के नाम पर अपना नाम रखा टेरेसा। 23 मई 1929 को वो कोलंबो होते हुए भारत पहुँचीं जहाँ उन्होंने दार्जीलिंग और कलकत्ता डे लॉरेटो कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षा देने का कार्य किया।

कभी भारतीय साहित्य और अध्यात्म का गढ़ रहे कलकत्ता की गरीबी और आर्थिक असमानता ने उन्हें विचलित कर दिया। शिक्षक तो वे थी हीं उन्होंने यहाँ आकर नर्सिंग की शिक्षा भी ले ली। कलकत्ता की झोपड़ पट्टियों और मलिन बस्तियों को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनाया। वेटिकन से अनुमति मिलने के बाद 7 अक्टूबर 1950 को उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की। जिसका उद्देश्य था - 'भूखे, नंगे, बेघरबार, असहाय और उन सभी लोगों की सहायता करना जो इस संसार में अपने आपको अनचाहा और उपेक्षित पाते हैं।

सन 1952 में उन्होंने 'निर्मल हृदय' की स्थापना की जहाँ बेसहारा लोगों को आश्रय दिया जाता था। कुष्ठ रोगियों के लिए उन्होंने शांति नगर आश्रम बनवाया। इस प्रकार अपना सारा जीवन सड़कों पर बिताने वाले लोगों को उन्होंने कम से कम अंतिम समय वो सम्मान उपलब्ध कराया जिसके वो हकदार थे।

इस बीच अपने सेवा कार्यों से उन्होंने सारे संसार का ध्यान आकर्षित किया। कल की सिस्टर टेरेसा आज की मदर टेरेसा बन चुकी थीं। पहले भारत और फिर धीरे-धीरे सारे संसार में उनकी मिशनरीज की शाखाएँ खुलने लगीं। भूख, गरीबी और पीड़ितों के बीच उनके योगदान को स्वीकार करते हुए सन 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

पुरस्कार ग्रहण करते समय उन्होंने नकद मिले 1 लाख 92 हजार डॉलर भारत के जरूरतमंदों के कोष में देने की माँग करते हुए उन्होंने कहा कि नकद पुरस्कारों का महत्व तभी है जब वो जरूरतमंद लोगों तक पहुँच सके।

पुरस्कार ग्रहण समारोह में किसी ने उनसे पूछा - 'विश्व शांति स्थापित करने में हम क्या योगदान दे सकते हैं?' 'घर जाओ और अपने परिवार को प्यार करो।' मदर टेरेसा ने जवाब दिया। सन 1980 में उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें अनेक विश्वस्तरीय सम्मानों से विभूषित किया गया।

मदर टेरेसा ने सारे संसार का भ्रमण किया, वो हर उस जगह गईं जहाँ उनकी जरूरत थी। चाहे फिर वो इसराइल-फिलिस्तीनी युद्ध क्षेत्र हो या चेर्नोबिल का रेडियोधर्मी विकिरण क्षेत्र या फिर भूकंप पीड़ित अमेरिका। सन 1996 तक 100 से अधिक देशों में उनकी 517 मिशनरी काम कर रही थीं।

लंबे समय तक अधिक मेहनत ने उनके स्वास्थ्‍य को भी प्रभावित किया। सन 1983 में रोम में पोप से मुलाकात के दौरान उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। सन 1989 में दिल के दूसरे दौरे के बाद उन्हें पेसमेकर लगा दिया गया। लगातार खराब स्वास्थ्‍य के चलते 13 मार्च 1997 को उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी की अध्यक्षता त्याग दी। इसके लगभग 6 महीने बाद 5 सितंबर 1997 को कलकत्ता में उनका देहांत हो गया। करोड़ों दिलों की धड़कन बन कर मदर टेरेसा आज भी हमारे साथ हैं।
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