आप सब जानते हैं कि यह गीत फिल्म 'मधुमती' (1957) का है। इसे रफी साहब ने गाया है। परदे पर यह जॉनी वाकर पर आता है। आप हैरान हो रहे होंगे कि इस कॉमेडी गाने में, जिसकी न धुन जोरदार है, न गीत के बोल ध्यान खींचते हैं, और न रफी साहब यहां कोई कमाल करते हैं, ऐसी क्या बात है कि इसे 'गीत-गंगा' जैसे गंभीर स्तंभ में उठा लिया गया?
सचमुच गीत एकदम साधारण है और कहीं से कहीं तक 'मधुमती' के अमर गीतों के स्तर तक नहीं जाता, जैसे 'प्यासा' का 'सर जो तेरा चकराए' (वहां भी जॉनी वॉकर और वही रफी) फिल्म के कालजयी गीतों के मुकाबले मखमल पर टाट की पैबंद था। नरगिस उस गीत को लेकर काफी खफा थीं।
मगर फिल्म 'मधुमती' की कथा और उसके ट्रीटमेंट के भीतर उतरकर देखा जाए, तो इस गीत के बोल और फिल्म में उसकी 'प्लेसिंग' निर्देशक बिमल राय की जीनियस का अनुपम नमूना है। ऐसा कि आप दांतों तले उंगली दबा लें और उस महान निर्देशक के प्रति श्रद्धा से भर उठें।
' मधुमती' की कथा एक प्रेमी-प्रेमिका के पुनर्जन्म की कथा है। प्रेमिका मरने के बाद अपने हत्यारे, जिसके बलात्कार से बचने के लिए उसने किले की दीवार से नीचे खाई में छलांग लगा दी थी, से बदला लेती है। खलनायक प्राण माधवी नामक मधुमती की हमशक्ल को देखकर, उसे प्रेतात्मा समझते हुए, अपना गुनाह कबूल करता है, जिसे पुलिस रेकार्ड कर लेती है। पर तभी मधुमती की वास्तविक प्रेतात्मा आती है, और अपने प्रेमी को निगाहों से बांधकर, अपने पीछे, यंत्रवत ले जाती है। इस फेंटम के पीछे; पगलाया-सा डिरेंज्ड, प्रेमी किले की उसी दीवार तक जाता है और अपनी 'मधु' को बांहों में लेने के लिए दीवार के पार खाई में गिर पड़ता है।
ये तमाम बातें/ पिछले जन्म के ये तमाम वाकयात/ प्रेमी दिलीपकुमार को इस जन्म में याद आते हैं, जब वह अपनी पत्नी को लेने रेलवे स्टेशन पर जाता है और रास्ते में बरसात के कारण कार का रास्ता रुक जाने से एक उजाड़ हवेली में शरण लेता है। उसके साथ उसका दोस्त भी है। इस हवेली में उसे सब कुछ याद आने लगता है, जो पिछले जन्म में घटा था। एक तस्वीर को देखकर वह कहता है- 'उग्रनारायण (प्राण)!' मित्र पूछता है- इस तस्वीर के शख्स का नाम तुम्हें कैसे मालूम? वह कहता है- पता नहीं। पर जब से इस हवेली में आया हूं, हर चीज जानी-पहचानी मालूम पड़ती है। यह तस्वीर मैंने ही बनाई थी- पिछले जनम में। यही वो शख्स है, जो मेरी पिछले जन्म की प्रेमिका का हत्यारा है और एक तरह से मेरा भी।'
और कथा फ्लेश-बैक में लौट जाती है- 'जब मैं इस पहाड़ी इलाके में जमींदार उग्रनारायण का मैनेजर बनकर आया था।' आगे पिछले जन्म के आनंद बाबू का गीत शुरू होता है- 'सुहाना सफर और मौसम हसीं।' गरज कि फिल्म शुरू से आपको सस्पेंस से लेकर चलती है। जैसे आपकी सीट के नीचे सांप है, और आप फिल्म देख रहे हैं। जाने कब आपको सांप डंस जाए। यहां से वहां तक लगातार किसी अनहोने अनिष्ट का भय है, जो आपको सहज नहीं रहने देता। घना जंगल, बल खाता हुआ कोहरा, धुंध में दीखती मधुमती। 'आजा रे परदेसी' गीत की गूंज। दूर तराई में प्रेतों की तरह कतार में मेला देखने जाते लोग। धुएं में दिलीप का निकलना। कुहरे में वैजयंतीमाला का गायब हो जाना।
और अनिष्ट के वही डिस्कंफर्टिंग' संकेत गीतों के बोल और संगीत में भी- कौन हंसता है फूलों में छिपकर, बहार बेचैन है किसकी धुन पर/घड़ी-घड़ी मेरा दिल धड़के क्यों धड़के, आज मिलन की बेला में, सर से चुनरिया क्यों सरके, आज मिलन की बेला में/ दैया रे दैया चढ़ गयो पापी बिछुवा (अर्थात उग्रनारायण) और इस गीत का फिर कुछ-कुछ मरघटी संगीत। ऐसा लगता है, जैसे दर्शक खुद मरकर पिछले जन्म में से यह फिल्म देख रहा है या आगे वह भी आनंद बाबू और मधुमती की तरह दीवार से कूदकर मर जाएगा। हम दो लोकों में से इस फिल्म को देखते हैं। होशमंद और बेसुध दोनों होकर वक्त हमें यहां दो रेखाओं पर काटता हुआ निकल जाता है- 'इंटरसिप्टिंग'। पर, इस बीच हम याद रखें कि हम 'जंगल में मोर नाचा' जैसे फालतू 'बेसुरे, सस्ते और चलताऊ गाने को समझने जा रहे हैं।
फिल्म में यह गीत कब होता है? याद करें। मधुमती के रूप-यौवन को देखकर उग्रनारायण वीरसिंग (तिवारी) से कहता है- 'मुझे वह लड़की चाहिए। बस।' और षड्यंत्र रचकर आनंद बाबू (मैनेजर) को दूसरे शहर में भेजा देता है। इसी के फौरन बाद मधुमती का गाना आता है- 'घड़ी-घड़ी मेरा दिल धड़के।' और उसमें 'सर से चुनरिया सरकने अपशकुन-भरे संकेत का जिक्र होता है। आगे मधुमती आनंद से कहती है- 'तुम मीरपुर मत जाओ। तुम्हारे बिना मुझे डर लगता है। तुम भी नहीं हो। बापू भी नहीं है और वो राजा साहब है न, वो अच्छा आदमी नहीं है।' गरज कि निर्देशक हमें डरावने अनागत की ओर लिए जा रहा है और हम अपनी सीट के नीचे सांप को सरकता महसूस करते है।
अगले दृश्य में, आनंद बाबू को विदा करने के पहले मधुमती, अपने कबीले के देवता की पूजा करती है। तभी देवता पर से फूल गिर जाता है। मधुमती, घबड़ाकर कहती है- 'फूल गिर गया।' प्रेमी आनंद पूछता है- 'फूल गिर गया, तो क्या हुआ?' मधुमती- 'फूल का गिरना बुरा सगुन होता है।' आनंद कहता है- तुम तो कहती थी कि मैं मौत से नहीं डरती। और आगे फिर मधुमती का जो डायलॉग है, वह कला, सिनेमा और साहित्य का मास्टर पीस है। वह कहती है -'तुम्हें देखने के पहले मैं मौत से नहीं डरती थी। अब मैं जीना चाहती हूं। तुम्हारे लिए जीना चाहती हूं।' इसके बाद आनंद यानी दिलीपकुमार मीरपुर चला जाता है।
जाहिर है कि अब मधुमती के रेप का प्रयास होगा और वह अपने बचाव में पीछे हटती हुई टैरेस (छत) की दीवार पर चढ़ जाएगी और फिर 'खबरदार जो आगे बढ़े तो' कहती हुई, उग्रनारायण के आगे बढ़ने पर, हवेली से कूद पड़ेगी। मगर बिमल राय हमें यह दृश्य नहीं बताते। उसे वे कई रील आगे टाल देते हैं। इस दृश्य को हम तब देखते हैं, जब खलनायक माधवी को मधुमती की प्रेतात्मा समझकर कुबूल करता है- 'तो ऐसा हुआ।' और फिर हम जान पाते हैं कि आनंद के मीरपुर जाने के बाद मधुमती के साथ क्या हुआ? देवता के सर से फूल गिर गया था न!
गौर कीजिए! बिमल राय यहां मधुमती की मौत दिखाना छोड़कर सीधे जॉनी वाकर का कॉमेडी गाना दिखा देते हैं। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि हास्य के इस पुट से (बेतुकेपन के इस पुट से) ट्रेजेडी में कॉमेडी की इस अटपटी प्लेसिंग से.... आयरनी और गहरी हो जाती है और मधुमती की मौत कला की व्याकरण में और भी मार्मिक होकर पेश होती है। यह कुछ ऐसा है कि अस्पताल में किसी मजदूर नेता का संगीन ऑपरेशन चल रहा हो, जिस पर मिल मालिक ने भाड़े की गोलियां चलवा दी हैं और इंटरकट में सिने निर्देशक दिखा रहा है कि कुछ हिजड़े ताली बजा-बजाकर सड़क पर नाच-गा रहे हैं- 'एक नजर हम पर भी डालो मोरे सैंया।'
इस विरोधी और असंगत दृश्य के द्वारा निर्देशक व्यंग्य कर जाता है कि पूंजीपति के लिए मौत न सिर्फ सस्ती है, बल्कि एक फूहड़ मनोरंजन भी है। यानी जब हम इस अनुमान से गुजर रहे हैं कि मधुमती के साथ मौत जैसा अनिष्ट घट जाएगा, निर्देशक बिमल राय हम पर एक कॉमेडी गाना उछाल देते हैं, जिसकी वहां कोई तुक नहीं है। पर बाहर से रची हुई यह फूहड़ विसंगति फूल-सी कोमल और झरने-सी निश्छल वनमाला मधुमती की अनुमानित मौत को पेनफुल बना जाती है। ऐसा ही वे तब भी करते हैं, जब फिल्म के शुरू में संजीदा दिलीप कुमार और मसखरे जॉनी वाकर की पहली मुलाकात दिखलाते हैं। दृश्य है कि जॉनी वाकर झाड़ से उल्टा लटका हुआ है और उसी मुद्रा में आनंद बाबू से बात कर रहा है। यह संकेत है कि जंगल में कैद इस ट्रेजिक पटकथा के भीतर सब उल्टा ही उल्टा घटना है। कुछ न कुछ गड़बड़ होना है। जंगल के पेट में छटपटाती लाश का हजम हो जाना है।
फिल्म को देखने के बाद वापस पलटकर तार जोड़े जाएं, तो यह बात साफ हो जाती है कि शुरू में ही विदूषक को उल्टा टंगा दिखाकर बिमल राय मधुमती की मौत के असगुन को सेट कर चुके। यहां तक कि 'जंगल में मोर नाचा...' गाने के शुरू होने के पहले जॉनी वाकर शराब की खाली बोतल उलटकर अपनी चिर-परिचित मजाकिया आवाज में कहता है- 'अरे फिनिश!' यानी मधुमती फिनिश हो गई। इस दुनिया से पुंछ गई। तो इतने छोटे-छोटे बारीक संकेतों के गत्ते पर यह फिल्म चलती है। दो आंखों और एक दिमाग के बूते जैसे इसे पूरा-पूरा देख जाना संभव नहीं है।
आप कहेंगे इस गाने में क्या दम है। इसके बोल भी चल्लू हैं और धुन तो राम-राम सतही और कर्कश! पर बिमल राय, शैलेंद्र के मार्फत इस गीत के अटपटे बोलों से भी क्लासिकी दर्जे का काम लेते हैं। 'जंगल में मोर नाचा, किसी ने न देखा।' यानी जंगल में मधुमती मार डाली गई, किसी को पता न चला। और फिर वही मजाकिया, असंबद्ध लाइन कि 'हम जो थोड़ी-सी पीकर जरा झूमे, हाय रे सबने देखा।' आगे है- 'गोरी की गोल-गोल अंखियां शराबी, कर चुकी हैं कैसे कैसों की खराबी।' यानी यहां अपने आप मधुमती और उग्रनारायण की ओर इशारा हो गया है। और जब अगली लाइन आती है- 'इनका ये जोर जुल्म किसी ने न देखा' तो 'जोर जुल्म' शब्द के संकेत से खलनायक का नायिका पर 'जोर जुल्म' (बलात्कार की कोशिश) सजेस्ट हो जाता है।
अंतिम अंतरा है- 'किसी को हरे-हरे नोट का नशा है, किसी को सूट-बूट का नशा है' तो इन लाइनों से जमींदार खलनायक की बेपनाह दौलत, बेलगाम ऐयाशी और गैर की जांलेवा बलानोशी पर प्रच्छन्न व्यंग्य हो जाता है। इसी के साथ फिर जॉनी वाकर की बेतुकी असंबद्ध लाइन आती है- 'यारो हमें तो नौ टांक का नशा है।' जिसके अंत में रफी किलकारी भरते हैं। गोया कि कॉमेडी गीत के सस्तेपन से, विदूषक के निर्दोष छिछोरेपन से और रफी के 'बेसुरे' गायन से खलनायक की शदीद बदकारी पर भारी जूता पड़ गया। यह है इस कॉमेडी गीत का बुलंद फलसफाना अंदाज, जो 'लक्षणा' और 'व्यंजना' से चलता है। 'अमिधा' में आप इसे मिस कर जाएंगे।
मुझे बार-बार वह शॉट भी याद आता है, जिसमें जॉनी वाकर को, बोतल लेकर चढ़ाव पर चढ़ते, वहीं-वहीं फिसलते और वहीं-वहीं कदमताल करते दिखाया गया है। जैसे कि बिमल राय सजेस्ट कर रहे हों कि जीने को तरसती, सुरक्षित, आरामदेह मुकाम को पहुंचने का प्रयास करती, आनंद बाबू और मधुमती की जिंदगी फिसल-फिसल जाती है और सुख-शांति के सहज, जन्मजात पड़ाव को छू नहीं पाती, जो फिसलने के ऊपर चोटी पर है और स्थिर है। आज बिमल दा हमारे बीच नहीं हैं पर अपने प्रतिभाशाली मन की दर्जनों आंखों से उन्होंने जिस 'मधुमती' फिल्म को बनाया, उसके चप्पे-चप्पे में हमारी नजर के बाद, ऐसे-ऐसे संकेत हैं कि फिल्म अनेक स्तरों पर चलती है और एक फिल्म से बढ़कर अनेक फिल्म बन जाती है।
आम दर्शकों को मधुमती के इस फूहड़, सस्ते गाने में इतना सब शायद नजर न आए। मगर यदि आप कथा के साथ गुंथकर उसे भीतर से देख रहे हैं, तो यह सतही, चलताऊ गाना... भय-आतंक पैदा करता है। आपको सहज रहने नहीं देता।