मुझपे इल्जामे बेवफाई है...

अजातशत्रु
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आप में से अधिकांश का सुना हुआ गीत होगा यह। उत्तर पाँचवें दशक से छठे दशक के काफी वर्षों तक यह विविध भारती पर बजता रहा और बेशुमार फरमाइशों को खींचता रहा। अब यह यदा-कदा सुनाई पड़ता है और अपने दौर के माहौल और उनकी छोटी-छोटी बातों को याद दिला जाता है।

सोचता हू ँ कि कलाएँ हमें भविष्य में ले जाती हैं। मगर संगीत सुदूर अतीत में लौटा ले जाता है। ऐसे अतीत में, जहां कभी हम थे और उन जन्मों को याद नहीं कर पाते। मुझे लगता है कि संगीत ही एक ऐसी चीज है, जो शायद इस तथ्य को स्थापित कर सकता है कि मनुष्य जाने कितने जन्मों की यात्रा करता हुआ इस जनम में आता है।

खासकर इस देश में कुछ राग तो ऐसे हैं- जैसे पीलू, भैरवी, जोगिया वगैरह- जो ऐसी नींद से जगाने लगते हैं, जो हमारी जाग्रति और सामान्य नींद से आगे की नींद है। लगे हाथ यह भी बेतुकी बात नोट कर लीजिए कि लता जब डूबकर गाती हैं तो सिर्फ इस जन्म से नहीं, पिछले न जाने कितने जन्मों की ऊंघ में से गाती हैं कि उनके अनेक गीतों में जमाने लिपटे चले आते हैं।

इस गाने में यही बात है। इसे लता गा रही हैं, इसलिए ऐसी बात और भी ज्यादा है। फिर अन्ना (सी. रामचंद्र) की उदास धुन, उनके संगीत से उपजी उदासी और राग-विशेष से उपजा बुझा-बुझापन- तीनों मिलकर गीत को वहाँ पहुँचा देते हैं, जहां हम अनजान यादों के कोहरे में और कभी खो चुके झिलमिल चेहरे की यादों में खो जाते हैं।

यहाँ हम जैसे मौत की आधी नींद में भी होते हैं और जन्म-पार के अतीत में से जाग भी रहे होते हैं। लता का गायन एक ऐसा एहसास बुनता है, जैसे अरब के किसी अनजान महल में कोई शमां गलती जा रही है, रोशनी धुँधली पड़ती जा रही है और एक उदास शून्य हमें धीरे-धीरे निगलता जा रहा है।

आँखें भीगने लगती हैं। पता ही नहीं चलता कि महल में सिसकने वाली शहजादी हम हैं, या ऊँट पर दूर जाता अरबी प्रेमी हम हैं। या लता ही पिघलकर अपने उदास, निढाल सुर के साथ हममें घुलती जा रही हैं।

गीत को जांनिसार अख्तर ने लिखा था। परदे पर इसे वैजयंतीमाला ने सुरेश के लिए गाया था। यह सन्‌ 1955 की बात है। फिल् म थी- 'यास्मीन'। इसी फिल्म का एक और गाना बहुत मशहूर हुआ था- 'बेचैन नजर बेताब जिगर, ये दिल है किसी का दीवाना' (तलत)।

पढ़िए गीत-

मुझपे इल्जामे बेवफाई है, ऐ मोहब्बत तेरी दुहाई है
मुझपे... बेवफाई है।
उसने ठानी है जुल्म ढाने की, मुझमें हिम्मत है गम उठाने की
खुश हो ऐ दिल तुझे मिटाने की, मिटाने की,
आज उसने कसम तो खाई है, ऐ मोहब्बत तेरी दुहाई है
मुझपे... बेवफाई है
तू हुआ दिल से कब जुदा कह दे, मुझसे क्यों हो गया खफा कह दे,
तू ही इंसाफ से जरा कह दे, जरा कह दे-
किसने शर्ते-वफा भुलाई है, ऐ मोहब्बत तेरी दुहाई है
मुझपे... बेवफाई है
है गवारा तेरा हर सितम मुझको, हर जफा है तेरी करम मुझको,
जान जाए नहीं है गम मुझको, जब मोहब्बत पे बात आई है
ऐ मोहब्बत तेरी दुहाई है, मुझपे इल्जामे...

गौर कीजिए, शायर के अल्फाज कितने गुदाज (कोमल) और रवानी लिए हुए हैं। गीत में बातचीत का पुट है और कहीं भी 'सकता' नहीं है। लफ्जों की ऐसी आंतरिक लय मन को मोह जाती है। गीत खत्म हो जाता है और एक उदास आत्मा कमरे में ठहरी रह जाती है, जैसे उस पर आलम की तमाम रोशनी बुझ चुकी हो। चलते-चलते :

पड़ी रह गई वही एक ईंट सरहाने की।
किधर गए सराय में रात काटने वाले।

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