जाते-जाते

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प्रेमशंक र रघुवंश ी
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जाते-जाते
कर लेना चाहता हिसाब-किताब
भूल-चूक लेनी-देनी क ा

जाते-जाते
लौटाना चाहता असबाब
उन सभी का
जो हर वक्त मददगार रह े

जाते-जाते
सौंपना चाहता
पृथ्वी को पृथ्वी-हवा को हव ा

आग को आग-आकाश को आकाश
पानी को पानी-ध्वनि को ध्वनि
और जो कुछ पाया वह समाज क ो

और हाँ।
सूरज को रोशनी
चाँद को चाँदनी
खेत को फसले ं

और उन सभी को कृतज्ञता
जो मेरे या किसी के काम आ ए

जाते-जाते
बिखेरना चाहता वे स्वप्न
जिनके पदचिन्ह
जल थल नभ त क

अविराम यात्रा की तरह
अब भी समाए हैं ।

और उन साँसों को धन्यवाद
जो साँसों से मिलकर
करती रही जिंदगी को सार्थ क

और पसीने की उन बूँदों को
जो श्रम देवता को हर वक्त
देती रही अर्ध्य ।

साभार : अक्षरा

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