तुम आते हो तो लगता है

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शिवनाथ 'बिस्मिल'


उदासी बनके या फिर अश्रु बनकर बोलता है।
न बोलूँ मुख से दुख अपना तो अंतर बोलता है। ।

टपकता हो शहद जैसे कि जैसे फूल झरते हों।
वह कुछ इतना मधुरतम और सुंदर बोलता है। ।

जिसे आदर्श माना है उकेरा है उसे वर्ना।
न कोई मूर्ति बोले औ न पत्थर बोलता है। ।

महक जाते हैं खिड़की-द्वार, खिल उठती हैं दीवारें।
तुम आते हो तो लगता है, मेरा घर बोलता है। ।

न जाने किसने विष घोला है 'बिस्मिल' इन हवाओं में।
न पक्षी चहचहाते हैं न तरुवर बोलता है। ।

साभार : अक्षरम् संगोष्ठी
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