प्रतीक्षा में आतुर है नदी

नदी श्रृंखला की कविताएँ-3

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- प्रेमशंकर रघुवंशी
सूखते जा रहे झरने

और उजड़ते

जा रहे पहाड़

उजाड़ पहाड़ों को

देखती रात-दिन

विलाप में लीन है नदी

तिस पर चाहे जो, चाहे

जहाँ, रोक लेता उसे

तो ठीक से चल फिर भी

नहीं पाती नदी

कई दिनों में भूखी प्यासी

मरणासन्न है नदी, इसलिए

न तो अपने जलचरों से

बातें कर पाती, ना अपने

पशु-पक्षियों से, ना

वनस्पतियों से, ना ही

नहला धुला, खिला-पिला

पाती अतिथियों को ठीक से

नदी की यह दशा देख

असाढ़ के मेघों में

हलचल है और बिजलियों

में उदासी के अँधेरों को

छाँटने के हौंसले

आँधी, तूफान और धूल-धक्कड़

खाते, कूल-कछारों की

जुबान पर, बारिश के आगमन की

चर्चा है आजकल

और इसी के स्वागत में

डबडबाई आँखें लिए

पहाड़ जैसे वक्त को काटती

प्रतीक्षा में आतुर है नदी !!

साभार : पहल

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