शब्दों के शुभ पाँव

विज्ञान व्रत के दोहे

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मेरा नम्र प्रयास है, अब जीवन के हेतु।
शायद दोहों से बने, ध्वस्त हुआ जो सेतु।।

सिर्फ नजरिये ने किया, ऐसा एक कमाल।
मेरे लिए हराम जो, उसके लिए हलाल।।

सन्नाटा ठहरा हुआ, शायद तेरे गाँव।
इसीलिए गतिहीन हैं, शब्दों के शुभ पाँव।।

मेरे चेहरे से लिया, उसने इतना काम।
मैं जितना मखसूस था, अब उतना ही आम।।

फतह किए हैं मोर्चे, जीते युद्ध अनंत।
खुद से युद्ध न कर सका, मैं जीवन पर्यन्त।।

चुप्पी साधे हम सुनें, तुम्हीं रहो वाचाल।
हम भी एक कमाल हैं, तुम भी एक कमाल।।

खुशबू-खुशबू मन हुआ, पढ़ ख़त की तहरीर।
पाई उनके पत्र में, खुशबू की जागीर।।

ये सन्नाटा ध्वस्त हो, शब्द रहें आबाद।
धरती से आकाश का, बना रहे संवाद।।

मुझसे क्या गलती हुई, बतलाओ तो मित्र।
रचा जिसे संवाद ने, मत फाड़ो वो चित्र।।

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छू गोरी के गाल को, ऐसा हुआ निहाल।
बौराया उड़ता फिरा, सालों-साल गुलाल।।

बैठे चुप्पी साधकर, ओ निष्ठुर निकाम।
धन्य तुम्हारी 'साधना', मेरा तुम्हें प्रणाम।।

त्रस्त हुआ हूँ मौन से, कुछ तो करो निदान।
खुद से ही बातें करे, एकाकी 'विज्ञान'।।

साभार : अक्षरम् संगोष्ठी

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