स्त्री हूँ मैं

संज्ञा

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स्त्री हूँ मैं
पुरुष-मन का अनुराग बनकर
पल-पल फैलना चाहती हूँ मैं
आक्षितिज
ओ मेरी पृथ्वी!
तुममें समा जाना चाहती हूँ मैं
फिर-फिर हरियाली बनकर
उगने के लिए
ओ मेरे सूर्य!
तुम्हारी संज्ञा बन जाना चाहती हूँ मैं
प्रकाश और गरमी से भरी हुई
अनन्त यात्राओं पर चलने के लिए।
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