मैं अंधड़ में फँसा पियराया पत्ता

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मनोज कुमार झ ा
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पेड़ की टुनगी से अभी-अभी उड़ा पंछी
आँखों के जल में उठी हिलोर
मन के अमरूद में उतरा पृथ्वी का स्वाद
इसी पेड़ के नीचे से तो छाँटता रहा गेहूँ से जौ
उस शाम थकान की नोक पर खसा था
इसी चिडि़या का खोंता
कंधे का पंछी भी रहा अचीन्हा
मैं अंधड़ की आँत में फँसा पियराया पत्ता
सँवारने थे वसंत के अयाल
पतझरों के पत्तों के साथ बजना था
बदलती ऋतुओं से थे सवालात
प्रश्नों में उतरता सृष्टि का दूध
मगर रेत के टीले के पीछे हुआ जन्म
मुट्ठी-मुट्ठी धर रहा हूँ मरुथल में।

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