व्यंग्यात्मक काव्य : चलो अब कुछ बड़े हो जाते हैं

तरसेम कौर
छोड़ देते हैं मस्तियों को, नादानियों को
नहीं देखते उन सपनों को 
जो सूरज और चांद को छूने का दिलासा दिलाते हैं
दबा देते हैं उन हौसलों को जो
क्षितिज को छूने का दम भरते हैं 
आसमानों को छोड़ देते हैं
जमीन को ही अपना बना लेते हैं
उतार देते हैं उन पंखों को जो
समय की रफ्तार के विरूद्ध उड़ना जानते हैं
रंग-बिरंगी रोशनियों को क्या करना
चलो एक दिए की टिमटिम से ही जीवन उजियाला कर लेते हैं
चलो अब कुछ बड़े हो जाते हैं
नहीं खेलते वो खेल जो
हारने पर भी हंसा जाते हैं 
ऐसा करते हैं कुछ जो सिर्फ जीतना सिखाए
हो जिसमें चित भी मेरी और पट भी मेरा 
बस जीतने का मजा चखने की आदत डाल लेते हैं
खुद तो हंस लो, दूजे को रुला दो
चलो दूसरों के दुःख में हंसने का राज ढूंढ लेते हैं
 
चलो अब कुछ बड़े हो जाते हैं
नहीं निभाते दोस्ती के वादे को दुश्मनी निभा लेते हैं
हो जो दिल के पास हो किसी से प्यार इकरार
चलो किसी और के लिए अपने प्यार को दुत्कार देते हैं
न रस्मों की न रिवाजों की परवाह 
जीवन की आपाधापी में सब रीती रिवाजों को भुला देते हैं
 
चलो अब कुछ बड़े हो जाते हैं
दोस्ती को रिश्तों को भुला देते हैं रंजिशों को पाल लेते हैं..!!
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