हिन्दी कविता : एक कमरे की जिंदगी

Webdunia
निशा माथुर 
एक कमरे में बसर करती ये जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
 
खिलखिलाते से बचपन लिए खिलती
कभी बहकती जवानी लिए जिंदगी
लड़खड़ाता बुढ़ापा लिए लड़खड़ाती
आती जन्म-मरण-परण लिए जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
चादर से बड़े होते पांव की सी फैलती
या रिश्तों संग बहती नाव सी जिंदगी
अनजाने से अनचाहे घाव-सी दे जाती
बबूल कभी बरगद के छांव सी जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
 
दोनों हाथों को फैला चांद को छू आती
भाई भाई के मन को ना छूती जिंदगी
कहने को तो हमें समृद्दि आज छू आती 
मां बाप को घर में ना छू पाती जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
 
 
अनकही यादों की गलबहियां सी हंसती
समय शून्य में अठखेलियों सी जिंदगी
मुट्ठी में बंद कुछ निशानियों को कसती
दीवार टंगी अपनो की स्मृतियां जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
 
 
खाली कोना बंद दरवाजे चुप सी सन्नाती,
खुली खिड़की से झांकती आती  जिंदगी
दरारों की वजह से दीवारों को यूं दरकती
कभी बड़ी खाइयों को भी पाटती जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
Show comments

इन विटामिन की कमी के कारण होती है पिज़्ज़ा पास्ता खाने की क्रेविंग

The 90's: मन की बगिया महकाने वाला यादों का सुनहरा सफर

सेहत के लिए बहुत फायदेमंद है नारियल की मलाई, ऐसे करें डाइट में शामिल

गर्मियों में ये 2 तरह के रायते आपको रखेंगे सेहतमंद, जानें विधि

गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों के साथ जा रहे हैं घूमने तो इन 6 बातों का रखें ध्यान

कार्ल मार्क्स: सर्वहारा वर्ग के मसीहा या 'दीया तले अंधेरा'

राजनीति महज वोटों का जुगाड़ नहीं है

जल्दी निकल जाता है बालों का रंग तो आजमाएं ये 6 बेहतरीन टिप्स

मॉरिशस में भोजपुरी सिनेमा पर व्‍याख्‍यान देंगे मनोज भावुक

गर्मी के मौसम में कितनी बार सनस्क्रीन लगाना चाहिए, जानिए सही समय

अगला लेख