पीड़ाओं से सदा घिरे जो, उनका अंतर्नाद
तुम कैसे कह दोगे इसको पल भर का उन्माद
भीतर-भीतर सुलग रही थी धीमी-धीमी आग
अपमानों के शोलों में कुछ लपट पड़ी थी जाग
रह-रह के फिर टीस जगाते घावों के वो दाग
एक उदासी का मौसम बस, क्या सावन क्या फाग
संवादों के कारागृह में, कैसा वाद-विवाद।
तुम कैसे कह दोगे इसको क्षण भर का उन्माद।
सदियों से ही रहा तृषित मन, आएगी कब बार
छोड़ चला धीरज भी नाता, क्लेश धरा आकार।
पाया नहीं उजास कहीं भी, कैसे हो तम पार
पीड़ाओं का बोझा भारी, कब तक सहता भार।
किस दुख ने कब-कब पिघलाया, हर पल की है याद
तुम कैसे कह दोगे इसको क्षण भर का उन्माद।