हमेशा की तरह ही
त्रस्त हैं लोग
सूखते रिश्तों से
आंखों के घटते पानी से
और
गिरते भू जल स्तर से।
रिश्ते और पानी जीवन है
इनका निरंतर घटते रहना
सिर्फ
घटना ही नहीं है,
यह है
हमारी उस प्रवृत्ति का प्रतिफल
जिसने हमें बना दिया है
प्रकृति और रिश्तों के प्रति
उदासीन और लापरवाह।
भोग तो रहे ही हैं हम
इसका भारी दुष्परिणाम
पर
सबसे ज्यादा भोगेगी इसे
हमारी आने वाली वह पौध
जिसे हमने दे रखी हैं
संस्कारविहीन सुविधाएं अनंत
और कर दिया है प्रकृति तथा
परिवार से विलग।
हम खरीदना चाहते हैं
पैसे से हर खुशी
पर क्या करेगा पैसा भी
जब हमारे अपने संस्कारों में
आंखों में
और धरा में भी
होगा ही नहीं पानी।
वक्त अभी भी है
हम करें रक्षा प्रकृति की,
परिवार की, और रिश्तों की।
सिखाएं बच्चों को भी यह
कि रिश्तों की जमीन में भी
रमता है पानी
धरा की ही तरह।
जिस दिन सीख जाएंगे
उनके साथ ही
हम भी यह सब,
रह जाएगा
आंखों में भी पानी
रिश्तों में भी पानी
धरा और अम्बर में भी पानी।