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नारी पर कविता : मेरी भूमिका...
सुशील कुमार शर्मा
(अक्सर लोग विकास के क्रम में स्त्री की भूमिका को नगण्य समझते हैं। स्त्री के मनोभावों को प्रदर्शित करती कविता।)
सृष्टि के प्रथम सोपान से,
आज के अविरल विकास महान तक,
मेरी भूमिका का संदर्भ,
अहो! प्रश्नचिन्ह कितना दुखद।
सनातन संस्कृति का आरंभ,
सृष्टि के प्रथम बीज का रोपण,
मेरी गर्भनाल से प्रारंभ,
आदिमानव की संगिनी से लेकर,
व्यस्ततम प्रगति सोपानों तक,
मेरी भूमिका का संदर्भ,
अहो! प्रश्नचिन्ह कितना दुखद।
ऋग्वेद से लेकर बाजारीकरण तक,
कितनी अकेली मेरी अंतस यात्रा,
हर समय सिर्फ त्याग और बलिदान,
न जी सकी कभी अपना काल,
सदा बनती रही पूर्ण विराम,
विकास के अविरल पथ पर,
मेरी भूमिका का संदर्भ,
अहो! प्रश्नचिन्ह कितना दुखद।
मैं दुर्गा, गार्गी, मैत्रयी से लेकर,
वर्तमान की अत्याधुनिक वेशधारी,
कितनी असहनीय अमानवीय यात्राओं को सहती,
मेरे तन ने अनेक रूप बदले,
मन लेकिन वही सात्विक शुद्ध,
मानवीय मूल्यों को समेटे,
नित नए संकल्पों में विकल्प ढूंढती,
मेरी भूमिका का संदर्भ,
अहो! प्रश्नचिन्ह कितना दुखद।
क्षितिज के पार महाकाश दृश्य,
शब्दों-सी स्वयं प्रकाशित स्वयंसिद्ध,
काल की सीमाओं से परे मेरा व्यक्तित्व,
देश नहीं विश्व निर्माण में मेरा अस्तित्व,
मेरी भूमिका का संदर्भ,
अहो! प्रश्नचिन्ह कितना दुखद।
हर युग, हर काल में मेरा रुदन,
विरोधाभास और विडंबनाएं गहन,
अंतस में होता हमेशा मेरे नव सृजन,
हर देश, हर काल का विकास पथ,
है मेरे इतर शून्यतम,
मेरी भूमिका का संदर्भ,
अहो! प्रश्नचिन्ह कितना दुखद।
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