श्रम दिवस कविता : श्रम दिन - दीन श्रम

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राकेश भैया 
बासी सपने रांध-रांध 
भूख पेट की बांध-बांध 
सुबह से आंसू पीते हैं
जाने कैसे जीते हैं 
 
सूखी साधे सींच-सींच 
भाव-भावना भींच-भींच
अंतर मन तक रीते हैं
जाने  कैसे  जीते  हैं 
टूटी आशा जोड़-जोड़ 
उम्र के टुकड़े तोड़-तोड़
उम्मीद के चिथड़े सीते हैं 
 जाने कैसे जीते हैं 
 
उखड़ी सांसें थाम-थाम 
सुबह दुपहरिया शाम-शाम
दिन की तरह से बीते हैं 
जाने कैसे जीते हैं 
 
बेदर्द वक्त से हार-हार
चाहत मन की मार-मार
बने बेस्वाद कसैले तीते हैं
जाने कैसे जीते हैं 
 
बदरंग जिंदगी पाप-पाप 
बचपन से लागा शाप-शाप 
मरने के सभी सुभीते हैं 
फिर भी जाने कैसे जीते हैं...                 
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