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कश्मीर पर कविता : घाटी फिर से हर्षाएगी, 'डल' का दर्पण फिर चमकेगा

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इंदु पाराशर 
 
इतने सालों से भारत मां,
अपने ही घर में घुटती थीं।
उसकी ही तो संतानें थीं, 
जो दो हिस्सों में बंटती थीं।
 
जैसे पाया मैंने शासन ,
मेरा भाई भी मंत्री हो। 
भारत मां का कुछ भी होवे,
फिर देश भले परतंत्री हो।
 
 कुछ इसी सोच को अपनाकर, 
वह 'सुर्ख गुलाब'  मचल बैठा। 
निज स्वार्थ पूर्ति की कोशिश में,
दामन में आग लगा बैठा ।
 
यह आग तभी से सुलग रही,
लपटें जब तब झुलसाती थीं । 
भारत माता के मस्तक पर ,
फिर-फिर कालिख मंडराती थी। 
 
कहने को तो कह जाते थे, 
एकता सूत्र में बंधा देश। 
पर दो झंडे, संविधान अलग ,
कैसे रहता सम्मान शेष।
 
भारत मां के दो सिंहों ने ,
फिर से नूतन इतिहास लिखा। 
एकता देश की तोड़ रही ,
उस धारा का ही नाश किया।
 
सारा भारत आल्हादित है ,
हर ओर खुशी का ज्वार उठा। 
ढप,ढोल, नगाड़े बजते हैं, 
उत्साह चरम पर पहुंच रहा।
 
अब भी स्वार्थ की ओट बैठ, 
कुछ विषधर घात लगाए हैं।
लेकिन उनके विषदंतों से ,
यह सिंह कहां घबराए हैं।
 
सावन का सोमवार पहला, 
ले चंद्रयान को आया था। 
दूजे ने न्याय दिलाने को,
काला कानून( तीन तलाक) हटाया था।
 
यह तीजा सोमवार आया,
हमने अपनी जन्नत पाई।
भारत मां आज निहाल हुई ,
केसर की क्यारी मुस्काई।
 
घाटी फिर से हर्षाएगी ,
'डल' का दर्पण फिर चमकेगा ।
यह 5 अगस्त अमर होगा।
भारत का मस्तक दमकेगा।

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