कविता : होठों की बंसी

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निशा माथुर 
 
तू ही माला, तू ही मंतर,
तू ही पूजा, तू ही मनका
का कहूं के, मेरी धड़कन पे गंगाजल-सी प्रीत लिखूं।
तू है मधुबन में, तेरे होठों पे मुरलि‍या, सुन मेरे कान्हा,
कैसे मैं इन अधरों पर मेरे,
मधुर बंसी का गीत लिखूं। 
 
तू है सृष्टि में, तू है दृष्टि में, तू ही काल-कराल वृष्टि‍ में, 
मैं निपट अकेली इस जग में, कैसे विरह की पीर लिखूं।
मन की बंजारन, तन से भी हुई बावरी, ओ मेरे मोहन, 
कैसे अपनी भूली सुधियों पे, बहते अश्रु का नीर लिखूं।
 
तू ही रैन, तू ही मेरा चैन, तू ही मेरा चोर, तू चितचोर, 
बहती यमुना-सी आकुल हृदय की, कैसे धीर अधीर लिखूं।
तू ही नंदन, तू ही कानन, तू ही वंदन, सुन मेरे कृष्णा, 
कैसे मेरे निर्झर नैनों में तेरे दर्शन की पीर अधीर लिखूं।
 
तू ही सासों में, तू ही रागों में, तू ही संगीत, तू मेरे साजो में, 
का कहूं कि‍, मुरलिया सुध बुध बिसराई, मैं हार या जीत लिखूं। 
छू लूं तेरे चरण, मैं तेरी शरण, कर आलिंगन, ओ मेरे श्यामा ।
तेरे होठों की बंसी बन बन जाउं और शाश्वत संगीत लिखूं।
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