हिन्दी कविता : जीवन-संघर्ष

Webdunia
निशा माथुर
 
ये जिंदगी संघर्षो में तपके
अठखेलियों संग पानी सी बह रही
मितवा,
 
 नयनों के नीर संग जीवन के दुर्गम पथ मुदित चलते रहें
सासों का कंपित दमखम लिए, उर में पुलकित चाह, खिलते रहें। 
क्या हुआ गर इस जीवन में परिस्थि‍तियां कम से बहुत कमतर हैं 
तुम भी चलो मैं भी चलूं, थाम के हाथों में हाथ फिर क्या गम है


 
तेरे सुर को उच्छवास संगीत मिले, मेरी कलम को तेरी हंसती प्रीत 
मुक्त प्रवाह प्रेम स्वच्छंद हो हमारा, फिर ये जीवन उलझन की जीत
धैर्य मेरा वो किलकित ध्रुवतारा और जीवन सफर है कितना  तूफानी 
हर क्षण को स्वीकृत करते चलें हम, अब ना हो नियति की मनमानी
 
अपने हदय के सत्य को खोजें,  आओ, छोड़ें मोह-माया रिश्तों के बंधन
दो चार दिन का मेला-रेला ये साथी, फिर लम्हों-लम्हों का सतसंग
जीवन का ये अस्त्र- शस्त्र है, इसके संघर्षों का ढर्रा कभी नहीं बदला
चौदह साल में तो राम का भाग्य भी बदला था, मेरा क्यूं नहीं बदला
 
सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता है ये कभी कहीं सुना था
समय साथ ये कहावतें भी बदलीं उम्मीदों पे कब किसका जोर चला था
जैसे ही नत हुए, सोचो वहीं मृत हुए ज्यों वृंत से झर के सुमन होता हैं
कर्म-क्षेत्र के योद्धा हम मितवा, हार के डर से, क्या जीवन में संघर्ष होता है
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