कविता : कागज की नाव

Webdunia
निशा माथुर
 
कल रात दर दो कदम बबूलों से गुजर के आई,
देह पर अपने खरोंचों के कुछ सिलसिले ले आई।
 
बहुत से टूटते सपने सलते दुखते हुए रो रहे थे,
मरुस्थल से जलते मन पर जैसे छाले पड़ गए थे।
 
अरमानों का टपकता लहू मेरी आंखें धो रही थीं , 
सिसकती चांदनी भी दिल के घाव सहला रही थी।
 
वक्त कुछ यूं किस्से सुना रहा था मुझे खंडहरों के,
कैसे जिंदगी के पल बीत रहे हैं, संग पतझरों के।
 
मैं, बेचैन-सी सिरहाने नींद धर-धर के जागती रही,
आखों में यादों के कितने, बीहड़ जमा करती रही।
 
छांव का कोई छींटा नहीं, मौसम टीसों-सा ठहरा है, 
काटे नहीं कटते सन्नाटे, होंठो पे चुप का पहरा है।
 
कोई छत नहीं, कैसे देखो सिर पर खड़ी बरसात है?
जिंदगी की क्या बात करूं, हाथ कागज की नाव है।
Show comments
सभी देखें

जरुर पढ़ें

इन कारणों से 40 पास की महिलाओं को वेट लॉस में होती है परेशानी

लू लगने पर ये फल खाने से रिकवरी होती है फास्ट, मिलती है राहत

खुद की तलाश में प्लान करें एक शानदार सोलो ट्रिप, ये जगहें रहेंगी शानदार

5 हजार वर्ष तक जिंदा रहने का नुस्खा, जानकर चौंक जाएंगे Video

योग के अनुसार प्राणायाम करने के क्या हैं 6 चमत्कारी फायदे, आप भी 5 मिनट रोज करें

सभी देखें

नवीनतम

भारत के जल युद्ध से अब पाकिस्तान में तबाही का खौफ़

वास्तु के अनुसार कैसे प्राप्त कर सकते हैं नौकरी

पाकिस्तान से युद्ध क्यों है जरूरी, जानिए 5 चौंकाने वाले कारण

घर की लाड़ली को दीजिए श अक्षर से शुरू होने वाले ये पारंपरिक नाम

मनोरंजक बाल कहानी: चूहा और शेर