कविता : दिसंबर का महीना

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निशा माथुर 
वो अटके से ठहरे-ठहरे से जज्बात,
लबों पे रूकते लफ्जों की बंदिश।
दिल में खलिश-सी तेरी मौजूदगी और.....
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
 
कोहरे की चादर में लिपटे कुछ ख्याल, 
धुंध में धुंधलाता सर्द-सा तेरा अक्स।
बिछुड़े को ढूंढता पागल दिल और.....
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
 
वो कुनमुनी धूप में आंखों से झरते मोती,  
पलकों के कोरों से समेटती कुछ आहें।
बदन पे लपेटे तेरी खुश्बू का लिबास और.....
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
तेरी यादों की वो जानलेवा अंगड़ाई, 
तुझे ही सोचना, लिखना और गुनगुनाना।
चांदनी-सी खिलती कमसिन हंसी और.....
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
 
तेरी बातों-बातों में आंचल की नरमी, 
कानों को छूकर निकलता रूहानी स्पर्श।
रंगीन हो जाते स्याही के स्याह रंग और
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
 
तेरी निगाहों की मीठी-सी शरारत,
मेरे चेहरे से उलझती जाती-सी नजर।
फिर तेरा नेह बनकर यूं बरसना और.....
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
 
 
तेरा शाम का सूरज बन ढल जाना, 
मेरा शबभर यूं भटकना सेहराओं में।
फिर जिस्म तेरी छुअन से जल उठे और.....
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
 
वो बर्फ-सी जम-जम जाती सांसें, 
पिघलती-सी ठहरी-ठहरी शमा-सी मैं।
कंपकपाता, ठिठुरता-सा रोम-रोम और, 
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
 
तेरी चाहतों का ओढ़ कर आसमान,
अपने अरमानों का सुलगा कर अलाव।
सेंक लूं वेणी में गुंथी हुई कुछ उम्मीदें और.....
उफ ! ये दिसंबर का महीना।
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