हिन्दी कविता : समय शून्य सा

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निशा माथुर
समय शून्य-सा कभी करवट बदलता-सा
टूटती-सी सांसे और बिखरे फूल-सा
 
दिल की गर्द झाड़ने को जरा जो ठहरी
तो ये रूक गया, कायनात-सा थम गया
और देता हुआ दस्तक दहलीज पर,
कठहरे में मुझ स्वयं को खड़ा कर गया
 
समय शून्य-सा कभी करवट बदलता-सा
झूमती इठलाती लहरों की मौज-सा
बादल निचोड़कर कुछ छींटे देता रहा
तो तपते से जीवन को राहत भी दे गया
और घड़ी-घड़ी मेरे कदमों के सहारे पर,
मेरी बाहों में अतीत के अवशेष छोड़ गया
 
समय शून्य-सा कभी करवट बदलता-सा
ठूंठ की तरह जड़ होता और नगण्य-सा
अधरों पे गुलमोहरों-सी गुलाबी रंगत ले रहा
तो भावविभोर हो प्यार में खिलखिला गया
और सुख के सूरज-सा छांव धूप के खेल पर
कैलेंडर के पन्नों-सा बदल, शून्य कर गया
 
समय शून्य-सा कभी करवट बदलता सा
चुप, बिना पदचाप के वक्त की चाल-सा
एक हाथ से लेकर के दोनो हाथों से लेता रहा
अपने पदचिन्ह छोड़ता अनवरत भागता गया
और सांस के साथ देह, देह के साथ आस पर,
कालचक्र-सा कभी जीता और पल-पल मार गया
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